पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१४४

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( १२८ ) झूठे सुखं को सुख कहैं मानत हैं मन मोद। जगत चवेना काल का कुछ मुख में कुछ गोद ॥३९७॥ कुसल कुसल ही पूछते जग में रहा न कोय । जरा मुई ना भय मुत्रा कुसल कहाँ से होय ॥३९८।। पानी केरा बुदुदा अस मानुष की जात । देखत ही छिप जायगा ज्यों तारा परभात ||३९९॥ रात गँवाई सोय कर दिवस गँवाया खाय । हीरा जनम अमोल था कौड़ी वदले जाय ।।४००॥ आछे दिन पाछे गए गुरु से किया न हेत । अव पछतावा क्या करै चिड़ियाँ चुग गई खेत ॥४०॥ काल्ह करै सो श्राज कर आज करे सो अब्द । पल में परलै होयगी बहुरि करेगा कब्ब ।।४०२॥ पाव पलक की सुध नहीं कर काल्ह का साज । काल अचानक मारसी ज्यों तीतर को वाज ॥४०३।। कविरा नौवत आपनी दस दिन लेहु वजाय । यह पुर पट्टन यह गली वहुरि न देखो आय ॥४०४।। पाँचो नौवत वाजती होत छतीसो राग । सो मंदिर खाली पड़ा बैठन लागे काग ॥४०५।। ऊजड़ खेड़े ठीकरी गढि गढ़ि गए कुम्हार । रावन सरिखा चल गया लंका का सरदार ॥४०६।। कविरा गर्व न कीजिए अस जोवन की श्रास। टेसू फूला दिवस दस खंखर भया पलास ||४०७।। कविरा गर्व न कीजिए ऊँचा देख अवास। काल्ह परा भुइँ लेटना ऊपर जमसी घास ॥४०८।। ऐसा यह संसार है जैसा सेमर फूल । दिन दस के व्योहार में झूठे रंग न भूल ॥४०९।।