पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१४५

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( १२९ ) माटी कहे कुम्हार को तूं क्या रूँदै मोहिं । इक दिन ऐसा होयगा मैं दूंगी तोहि ॥४१०॥ कविरा यह तन जात है सके तो ठौर लगाव । के सेवा कर साध की कै गुरु के गुन गाव ॥४१॥॥ मोर तेर की जेवरी वटि वाँधा संसार । दास कवीरा क्यों बँधै जाके नाम अधार ॥४१२॥ दुर्लभ मानुप जनम है देह न वारंवार । तरवर ज्यों पत्ता झड़े वहुरि न लागै डार ॥४१३॥ श्राए हैं सो जायँगे राजा रंक फकीर । इक सिंहासन चढ़ि चले इक बँधि जात जंजीर ॥४१४॥ जो जानहु जिव आपना करहु जीव को सार । जियरा ऐसा पाहना मिले न दूजी वार॥४१५॥ कविरा यह तन जात है सके तो राख वहोर। खाली हाथों वे गए जिन के लाख करोर ॥४१६।। आस पास जोधा खड़े सवी बजावे गाल । माँझ महल से ले चला ऐसा काल कराल ॥४१७।। तन सराय मन पाहरू मनसा उतरी श्राय । कोउ काहू का है नहीं देखा ठोंक वजाय ॥४१८॥ मैं मैं बड़ी वलाय है सको तो निकसो भाग । कह कवीर कव लग रहे रुई लपेटी आग ॥४१९।। वासर सुख ना रैन सुख ना सुख सपने माहिं । जो नर विछुड़े नाम से तिन को धूप न छाहिं ॥४२०॥ अपने पहरे जागिए ना पड़ रहिए सोय । ना जानौ छिन एक में किसका पहरा होय ॥४२॥ दीन गँवायो सँग दुनी दुनी न चाली साथ। पाँव कुल्हाड़ी मारिया मूरख अपने हाथ ॥४२२॥ .