पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१४७

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( १३१ ) हम जानें थे खायँगे वहुत जमीं वहु माल । ज्यों का त्यों ही रह गया पकरि ले गया काल ॥४३६॥ दव की दाही लाकड़ी ठाढ़ी कर पुकार । अव जो जाउँ लोहार घर डाहै दूजी चार ॥४३७।। जरनेहारा भी भुआ मुआ जरावन-हार । है है करते भी मुए कासो करौं पुकार ।।४३८॥ भाई वीर वटाउआ भरि भरि नैनन रोय । जाका था सो लेलिया दीन्हा था दिन दोय ॥४३९।। तेरा संगी कोई नहीं सभी स्वारथी लोय । मन परतीति न ऊपजै जिवे विस्वास न होय ॥४४०॥ कविरा रसरी पाँव में कह सोचै सुख चैन । स्वाँस नगाड़ा फॅच का वाजत है दिन रैन ॥४४॥ पात झरंता यों कहै सुनु तरवर वनराय । अव के विछुरे ना मिले दूर परेंगे जाय ॥४४२॥ कविरा जंत्र न वाजई टूटि गया सव तार । जंत्र विचारा क्या करे चला वजावन-हार ॥४४३॥ साथी हमरे चलि गए हम भी चालनहार । कागद में वाकी रही तातें लागी वार ॥४४४॥ दस द्वारे का पीजरा तामें पंछी पौन । रहिये को आचरज है जाय तो अचरज कौन ||४४५॥ सुर नर मुनि श्री देवता सात द्वीप नव खंड । कह कवीर सव भोगिया देह धरे का दंड ॥४४६॥ उपदेश जो तोको काँटा वुवै ताहि वोव तू. फूल । तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसूल ॥४४॥