पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१६१

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( १४३ ) उदारता कविरा गुरु के मिलन की बात सुनी हम दोय । कै साहेव का नाम ले के कर ऊँचा होय ॥५७३॥ ऋतु वसंत जाचक भया हरपि दिया द्रम पात । तातें नव पलव भया दिया दूर नहि जात ॥५७४|| जो जल वाढ़े नाव में घर में वाढ़े दाम । दोऊ हाथ उलीचिए यहि सजन को काम ||५७५।। हाड़ बड़ा हरि भजन कर द्रव्य वड़ा कछु देय । अकल बड़ी उपकार कर जीवन का फल येह ॥५७६।। देह धरे का गुन यही देहु देहु कछु देहु । वहुरि न देही पाइए अव की देहु सो देहु ॥५७७।। सत ही में सत वाँटई रोटी में तें ट्रक । कह कवीर ता दास को कचहूँ न आव चूक ।।५७८।। संतोष चाह गई चिंता मिटी मनुवाँ बेपरवाह । जिनको कछू न चाहिए सोई साहंसाह ।।५७९।। माँगन गए सो मरि रहे मरे सो माँगन जाहिं । तिनसे पहले वे भरे होत कहत जो नाहि ॥५८०॥ गोधन गजधन वाजिधन और रतन धन खानि । जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान ॥५८।। मरि जाऊँ माँयूँ नहीं अपने तन के काज । परमारथ के कारने मोहिं न आवै लाज ।।५८२।।