पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८

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( १२ ) विद्वान् हिंदू महात्मा के सत्संग द्वारा ज्ञानार्जन किया था। और स्वामी रामानंद के अतिरिक्त उस समय ऐसा महात्मा कोई दूसरा नहीं था। ___एक वात और है । वह यह कि हम उनके प्रामाणिक ग्रंथों में कहीं कहीं ऐसा वाक्य पाते हैं, जो उनको हिंदुओं का पक्षपाती बताते हैं या मुसल्मान जाति पर उनकी वृणा प्रकट करते हैं, और जिन्हें मुसल्मान धर्माचार्य का शिष्य कभी नहीं कह सकता। नीचे के पदों को पढ़िए- "सुनत कराय तुरुक जो होना, औरत को का कहिए । अरध शरीरी नारि वखाने, ताते हिंद रहिए ॥" कवीर वीजक, पृष्ट ३६३, शब्द ८४ कितो मनावै पायँ परि, कितो मना रोइ । हिंदृ पूजे देवता तुरुक न काहुक होइ ॥ कवीर वीजक, साखी १८७, पृष्ट ५०३ मैंने अब तक जो कुछ कहा, उससे इसी सिद्धांत पर उप- नीत होना पड़ता है कि कबीर साहब स्वामी रामानंद के शिष्य थे किंतु उनके मंत्रग्रहण की वार्ता से मैं सहमत नहीं है। भक्तमाल और उसी के अनुसार दूसरे ग्रंथों में लिखा था है कि गुम करने की इच्छा उदित होने पर कबीर माहब ने स्वामी गमानंद को गुम करना विचाराः किंतु यवन होने के कारण वे स्वामी रामानंद जी तक नहीं पहुँच सकते थे। श्रतएव इनमे मंत्र ग्रहण करने के लिये उन्होंने दूसरी युनि निकाली। स्वामी रामानंद मंगरात्रि में गंगा मान के लिये नित्य मणिकर्णिका घाट पर जाया करते थे। एक दिन उनी समय की माराव घाट की सीढ़ियां में जाकर पढ़ ग. जर म्यामी जी श्राप, नवादियों में उतरने ममय इनका पाँच पार माय पर पड़ा। ये गुलवलाप। ग्वानी जी ने माना