पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१८२

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( १६४ ) वे कर्त्ता न वराह कहावै धरणि धरै नहि भारा। .ई सव काम साहेब कै नाहीं झूठ गहै संसारा॥ खंभ फारि जो बाहिर होई ताहि पतिज सव काई । हिरनाकुस नख उदर बिदारे सो नहिं कर्ता होई ।। बामन रूप न वलि की जाँचै जो जाँवै सो माया । विना बिबेक सकल जग जहड़े माया जग भरमाया। परशुराम छत्री नहिं मारा ई छल माया कीन्हा । सतगुरु भक्ति भेद नहिं जाने जीव अमिथ्या दीन्हा ।। सिरजनहार न व्याही सीता जल पखान नहि बंधा। वे रघुनाथ एक के सुमिरै जो सुमिरै सो अंधा ।। गोप ग्वाल गोकुल नहिं आए करते कंस न मारा। मेहरबान है सब का साहव नहिं जीता नहिं हारा ।। वे कर्ता नहिं बोध कहा नहीं असुर को मारा। ज्ञान हीन कर्ता सब भरमे माया जग संहारा।। वे कर्ता नहिं भए कलंकी नहीं लिगहिं मारा। ई छल-बल सव मायै कीन्हा जतिन सतिन सव टारा।। दस अवतार ईश्वरी माया कर्ता के जिन पूजा। कहै कबीर सुनो हो संतो उपजै खपै सो दूजा ॥५॥ कर्ता महत्ता वरनहुँ कौन रूप औ रेखा । दूसर कौन आय जो देखा ।। औ ओंकार आदि नहिं वेदा। ताकर कहाँ कौन कुल भेदा ।। नहिं तारागन नहिं रवि चंदा । नहिं कछु होत पिता के विंदा ।। नहिं जलनहिं थल नहिं थिर पवना। कोधर नाम हुकुमको वरना । नहिं कछु होत दिवस अरु राती। ताकर कहहुँ कौन कुल जाती