पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१९०

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( . १७२ ) करत कल्लोल वहु भाँति भागे। काम औ क्रोध मद लोभ अभिमान सव छाँड़ि पाखंड सत सब्द लागे॥ पुरुख के बदन की कौन महिमा कहाँ जगत में उभय कछु नाहिं पाई। चंद औ सूरगण जोति लागें नहीं एक ही नक्ख परकास भाई ॥ पान परवान जिन बंस का पाइया पहुंचिया पुरुख. के लोक जाई । कहै कब्बीर यहि भाँति सो पाइहौ सत्य की राह सो प्रगट गाई ॥१७॥ छोड़ि नासूत मलकूत जवरूत को और लाहूत हाहूत बाजी। और साहूत राहत ह्याँ डारि दै कूदि आहूत जाहूत जाजी ॥ जाय जाहूत में खुद खाविंद जहँ वहीं मकान साकेत साजी। कहै कबीर हाँ भिस्त दोजख थके वेद कीताव काहूत काजी ॥ १८॥ जहँ सतगुरु खेलें ऋतु वसंत । तहँ परम पुरुप सब साधु संत ॥ वह तीन लोक ते भिन्न राज। तहँ अनहद धुनि चहुँ पास वाज॥ दीपक वर जहँ निराधार । विरला जन कोई पाव पार ॥ जहँ कोटि कृश्न जोरे दु हाथ । जहँ कोटि विश्नु नावे सुमाथ ।।