पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१९७

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कर्ता-स्थान संतो योग अध्यातम सोई। एक ब्रह्म सकल घट व्यापै दुतिया और न कोई ।। प्रथम कमल जहँ ज्ञान चारि दल तहँ गणेश को वासा । रिधि सिधि जाकी शक्ति उपासी जप ते होत प्रकासा ।। पट दल कमल ब्रह्म को वासा सावित्री सँग सेवा। पट सहस्र जहँ जाप जपत हैं इंद्र सहित सव देवा ॥ अष्ट कमल जहँ हरि सँग लछमी तीजो सेवक पवना। पट सहस्त्र जहँ जाप जपत हैं मिटिगो आवा गवना ॥ द्वादस कमल में शिव को वासा गिरिजा शक्ती सारँग। षट सहस्र जहँ जाप जपत हैं ज्ञान सुरति लै पारंग ॥ खोड़स कमल में जीव को वासा शक्ति अविद्या जाने । एक सहस जहँ जाप जपत हैं ऐसा भेद वखान ।। भँवर गुफा जहँ दुइ दल कमला परम हंस कर वासा । एक सहस जाके जाप जपत हैं करम भरम को नासा ॥ सहस कमल में झिलमिल दरसो आपुइ वसत अपारा । जोति सरूप सकल जग व्यापी अछय पुरुष, है प्यारा॥ सुरति कमल पर सतगुरु वोले सहज जाप जप सोई। छः सै इकइस सहसहिं जपि ले वूझै अजपा कोई॥ यही ज्ञान को कोई दूझै भेद अगोचर भाई । जो वूझै सो मन का पेखै कह कवीर समझाई ॥ २५ ॥ रस गगन गुफा में अजर झरे। . विन वाजा झनकार उठे जहँ समुझि परै जव ध्यान धरै ॥ विना ताल जहँ कवल फुलाने तेहि चढ़ि हंसा केलि करै। विन चंदा उँजियारी दसै जहँ तहँ हंसा नजर परै॥