पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२१०

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( १९२ ) वूझहु पंडित करहु विचारी पुरुप अहै की नारी । ब्राह्मण के घर ब्राह्मणि होती योगी के घर चेली । कलमा पढ़ि पढ़ि भई तुरकिनी कवि में रहै अकेली।। घर नहिं बरै व्याह नहिं करई पुत्र जन्म होनिहारी। कार मँडे एक नहिं छाँडै अवहीं आदि कुँवारी ।। रहै न मैके जाय न ससुरे साई संग न सोचे । कह कवीर वह युग युग जी जाति पाँति कुल खो ४८ कोइ नाहिं विवाहल रह कुमारि ।। येहि सब देवन मिलि हरिहि दीन्ह । तेहि चारो युग हरि संग लीन्ह ।। यह प्रथमहि पमिनी रूप पाय । है साँपिनि सब जग देखि खाय ।। या पर युवती वे घर नाह । अति तेज तिया है नि ताह ।। यह अपने बलकवे रहे मारि ॥४॥ कर पाय के बल खेल नारि । पंदिन जो होय मी ले विचारि ।। कपरा नहिं पहिरे रह उघारि । निराजीये मी धन अति पियारि ।। उलटी पलटी बाजें मां तार । काहि मार का उधार ।। का, कार दामन पं. दाम । कामिद का उदाग ।।५।।