पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२१२

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( १९४ ) अवगति की गति काहुनजानी। एक जीभ कित कहों वखानी।। जो मुख होय जीभ दस लाखा। तो कोइ आइ महंतो भाखा ।। कहँहिं कबीर पुकारि के ई लेऊ व्यवहार। . राम राम जाने विना वृद्धि मुत्रा संसार ।।५३।। प्रथम आरंभ कौन के भाऊ । दूसर प्रगट कीन सो ठाऊँ ।। प्रगडे ब्रह्म विष्णु शिव शक्ती । प्रथमे भक्ति कीन्ह जिच उक्ती ॥ प्रगति पवन पानी श्री छाया । बहु विस्तर है प्रगटी माया ।। प्रगडे अंड पिंड ब्रहमंडा । पृथवी प्रगट कीन नव खंडा॥ प्रगटे सिध साधक संन्यासी । ये सब लागि रहे अविनासी। प्रगट सुर नर मुनि सव भारी। तेऊ खोजि परे सव हारी।। जीउ सीउ सब प्रगटे 4 टाकुर सब दास । कविर और जाने नहीं रोम नाम की पास ॥५।। मयम एक जो आत्र श्राप । निराकार निरगुन निरजाप ॥ महिनय भूमि पवन आकासा। नहिं तव पावक नीर निवासा॥ महि तब पाँच तत्व गुनतीनी नहि तव सृष्टी माया कीती ॥ ननिर आदि अंत मध तारा। नहिं तर अंध धुंध उँजियारा।। नानय ब्रमा विगु महन्ना । नहिं तव सूरज चाँद गनेला ।। नहि नय मच्छ करछ बाराहानाहि तब भादो फागुन माहा ॥ ननिय कंसकम्प पलिवावन नहिं तव रघुपति नाहिं नयरावन ॥ ननिय नरगुन नरल पनाग । नहिं तव धार दम अयनाग।। मानव मरमुनिजमुना गंगा ननिय सागर समुंदनगंगा ॥ गरि नीरथ तार पूजा । नहि तर देव देत अमना । निय पाप पुन गुम, नीन्या । न तव पदना गुगना गाया। नगर विया बंद पुराना नदि ना भपकनेय कुगना ।। र पर विद्यारि कनय गुलकिनिन नाहिं। पा पुगताना आती अगम अगोचर माहि ।।५।। Trar पर अगम बाग या कोई मायन याप!