पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२२०

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( २०२ ) जुगति जमूरा पाइकै सरपे लपटाना । विख वाके वेधे नहीं गुरु गंम समाना॥ दूध भात घृत भोजना बहु पाक मिठाई । जिभ्या लेस लगें नहीं उनके रोसनाई॥ वामी में विखधर वर्से कोइ पकरि न पाये। कह कवीर गुरु-मंत्र सेसहजै चलि आवै ॥७॥ दरस दिवाना वावरा अलमस्त फकीरा। एक अकेला है रहा असमत का धीरा ॥ हिरदे में महबूब है हर दम का प्यारा । पीएगा कोइ जौहरी गुरु-मुख मतवाला ॥ पियत पियाला प्रेम का सुघरे सव साथी । आठ पहर झूमत रहै जस मैगल हाथी॥ वंधन काटे मोह के बैठा निरसंका । वाके नजर न आवता क्या राजा रंका॥ धरती तो श्रासन किया तंवू असमाना । चोला पहिरा खाक का रह पाक समाना । सेवक कोसतगुरु मिले कछु रहिन तवाही। ____कह कवीर निजघर चलोजहँकाल नजाही॥७२॥ जहि कुल भगत भाग बड़ होई । अवरन वरन न गनिय रंक धनि विमल वास निज सोई॥ बाम्हन छत्री वैस सूद्र सव भगत समान न कोई। धन वह गाँव ठाँव असथाना है पुनीत सँग लोई ॥ होत पुनीत जपै सतनामा आपु तरै तारै कुल दोई। जैसे पुरइन रह जल भीतर कह कवीर जग में जन सोई ॥७३॥