पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २१६ ) मोहमहिमा ... बुढ़िया हँसि कह मैं नितहिं वारि।। मोहिं ऐसि तरुन कहु कौन नारि ।। ' ये दाँत गए मोर पान खात । औ केस गयल मोर गैंग नहात ।। औ नयन गयल मोर कजल देत । औ वैस' गयल पर पुरुष लेत ।। औ जान पुरुखवा मोर अहार । मैं अनजाने को कर सिंगार ॥ कह कबीर वुढ़ि आनँद गाय । नित पूत भतारहिं बैठि खाय ॥११६।। मोर मनुख है अति सुजान । धंधा कुटि कुटि कर विहान ॥ उठि बड़े भोर आँगन वुहार । ले बड़ी खाँच गोवरहि डार ॥ वासी भात मनुख ले खाय । वड़ घैला लै पानी जाय ॥ अपने सैयाँ वाँधी पाट । लै रे बेचौं हारे हाट ॥ कह कवीर ये हरि के काज । जोइया के ढिंगर कौन काज॥११७॥ डर लागै हाँसी आवे अजव जमाना आया रे। धन दौलत ले माल खजाना वेस्या नाच नचाया रे ॥ मुट्ठी अन्न साध कोइ माँगै कहैं नाज नहिं आया रे । कथा होय तहँ स्त्रोता सोवें वक्ता मूंड पचाया रे॥ . होय जहाँ कहि स्वाँग तमासातनिक न नींद सताया रे। भंग तमाखू सुलफा गाँजा सूखा खूब उड़ाया रे। गुरु चरनामृत .नेम न धारे, मधुवा चाखन आया रे । उलटी चलन चली दुनियाँ में, तातें जिय घवराया रे । कहतकवीर सुनोभाइ साधो, फिर पाछे पछताया रे ॥११८॥