पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २२२ ) वेद किताव कीन किन झूठा झूठा जो न विचारै। सब घट माहिं एक करि लेखै भै दूजा करि मारै ।। जेते औरत मर्द उपाने सो सव रूप तुम्हारा । कविर गंडा अलह राम का सो गुरु पीर हमारा ॥३५।। भँवर उड़े वक बैठे आय । रैनि गई दिवसौ चलि जाय ॥ हल हल काँपै वाला जीव । ना जाने का करिहै पीव ।। काँचे वासन टिकै न पानी । उड़िगे हंस काय कुम्हिलानी ॥ काग उड़ावत भुजा पिरानी । कह कबीर यह कथा सिरानी।१३६ राम नाम का सेवहु वीरा दूर नहीं दुरासा हो । और देव का पूजहु वारे ई सव झूठी आसा हो ॥ ऊपर के उजरे कह भो बोरे भीतर अजहूँ कारो हो । तन के वृद्ध कहां भी वारे ई मन अजहूँ वारो हो । मुख के दाँत गए का चारे अंदर दाँत लोहे के हो। फिर फिर चना चवाउ विपय के काम क्रोध मद लोभ हो ॥ तन की सक्ति सकल घट गयऊ मनहिं दिलासा दूनी हो । कहै कबीर सुनो हो संतो संकल सयानप ऊनी हो ॥१३७।। राम नाम विनु राम नाम विनु मिथ्या जन्म गँवाई हो। सेमर सेइ सुवा जो जहुँड़े ऊन परे पछिताई हो ॥ जैसे महिप गाँठि अरथे दे घरहुँ कि अकिल गँवाई हो। स्वादे उदर भरत धैां कैसे श्रोसै प्यास न जाई हो ॥ द्रव्य क हीन कौन पुरुपारथ मनहीं माहिं तवाई हो । गॉठी रतन भरम नहिं जानेहु पारख लीन्हीं छोरी हो ।। कह कवीर एहि अवसर वीते रतन न मिलै वहोरी हो ।।१३८॥ जो ते रसना राम न कहि है। उपजत विनसत भरमत रहि है ॥ जस देखी तरुवर की छाया । प्रान गए कहु काकी माया । जीवत कछु न किए परमाना । मुए कर्म कह काकर जाना ।। अंत काल सुख कोउ न सोवै । राजा रंक दोऊ मिल रोवै ।।