पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २२७ ) वह करत चोज वारही वार । तन वन फूल्यो कस डार डार ।। है लियो बनस्पति केर भोग । कुछ सुख न भयो तन वढयो रोग ॥ दिवस चार के सुरंग फुल । तेहि लखि भारा रहयो भूल ॥ वनस्पति जव लागे भाग । तव भौंरा कह जैहो भाग ॥ पुहुप पुराने गए सूख । लगी भँवर को अधिक भूख ।। उड़ न सकत वल गयौ छूट । तव भौंरा रोने सीस कूट ॥ चहुँ दिसि चितवै मुँह पराय। ले चल भौरी सिर चढ़ाय ॥ कहै कवीर ये मन के भाव । नाम विना सब जम के दाँव ॥१५२।। भजु मन जीवन नाम सवेरा। सुंदर देह देख निज भूलो झपट लेत जस वाज,क्टेरा। यह देही को गरव न कीजै उड़ पंछी जस लेत बसेरा।। या नगरी में रहन न पैहो कोइ रह जाग न दूख बनेरा। कह कवीर सुनो भाई साधो मानुख जनम न पैहो फेरा ॥१५३॥ ऐसी नगरिया में केहि विध रहना। नित उठ कलंक लगावै सहना ।। एकै कुआँ पाँच पनिहारी। . ___एकै लेजुर भरै नौ नारी ॥ कट गया कुआँ विनस गई वारी। विलग भई पाँचो पनिहारी।।