पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २३३ ) आठ मरातिव दस दरवाजा नौ में लगी किवरिया। खिरकि वैठ गोरी चितवन लागी उपराँ झाँप भापरिया।। कहत कवीर सुनो भाई साधो गुरु चरनन वलिहरिया। साध संत मिलि सौदा करिहैं झीखें मुरुख अनरिया ॥१६८॥ रतन जतन करु प्रेम के तत धरु सतगुरु इमरित नाम जुगत कै राखव रे । वावा घर रहलौं चवुई कहौलों सैंयाँ घरं चतुर सयान चेतव घरवा आपन रे । खेलत रहलौं मैं सुपली मउनिया औचक आए लेनिहार चलव केसिया भार रे। यह तो अँधेरी रात मुसल चोरवा थाती सैयाँ के वान कुवान सुतैलें गोड़वा तान रे । चुन चुन कलिया में सेजिया विछौलौं विना रे पुरुखवा कै नारि मँखैले दिनवाँ रात रे। ताल भुराय गैले फूल कुम्हिलाय गैल हंसा उड़त अकेल कोई नहिं देखल रे । अव का झंखैलू नारि हिए पैठलू मन मारि एहि वाटे मोतिया हेराइल रे । दास कवीर इहै गा3 निरगुनवाँ । अव की उहवाँ जाव तो फिर नहिं आउव रे ।।१६९।। का लै जैवो ससुर घर ऐवो। गाँव के लोग जब पूछन लगिहें तव हम कारे वतैयो। खोल धुंघट जव देखन लगि हैं तव हम बहुत लजैयो। कहत कवीर सुनो भाई साधो फिर सासुर नहिं पैवो ॥१७०॥ साँई मोर बसत अगम पुरवाँ जहँ गमन हमार। आठ कुत्राँ नव वावड़ी सोरह पनिहार ॥ भरल बयलवा ढरकि गए रे धन ठाढ़ी मन मार। छोट भोट डॅड़िया चंदन के हो, छोट चार कहार ॥ . जाय उतरिहैं वाही देसवाँ हो, जहँ कोइ न हमार। ऊँची महलिया साहब के हो लगी विखमी वजार ।। पाप. पुन्न दोउ चनियाँ हो, हीरा लाल अपार ।