पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २४२ ) वाजी न लाई प्रेम की, खेला जुआ तो क्या हुआ । जोगी दिगंवर से बड़ा, कपड़ा रँगे रँग लाल से । वाकिफ नहीं उस रंग से, कपड़ा रँगे से क्या हुआ । मंदिर झरोखे रावटी, गुल चमन में रहते सदा ॥ कहते कवीरा हैं सही, घट घट में साहव रम रहा ॥१९४॥ जिन के नाम ना है हिये। क्या होवै गल माला डाले कहा सुमिरनी लिए ॥ क्या होवै पुस्तक के वाँचे कहा संख-धुनि किए । स्या होवै कासी में वसि के क्या गंगाजल पिए ॥ होवे कहा वरत के राखे कहा तिलक सिर दिए । कहे कवीर सुनो भाई साधो जाता है जम लिए ॥१९५॥ अरे इन दोउन राह न पाई। हिंदू अपनी करै वड़ाई गागर छुवन न देई ॥ वेस्या के पायन तर सोवै यह देखो हिदुआई। मुसलमान के पीर औलिया मुरगी मुरगा खाई ॥ खाला केरी बेटी व्याह घरहि में करें सगाई। वाहर से इक मुर्दा लाए धोय धाय चढ़वाई॥ सव सखियाँ मिल जेवन वैठीं घर भर करें वड़ाई । हिंदुन की हिदुआई देखी तुरकन की तुरकाई ॥ कहैं कबीर सुनो भाई साधौ कौन राह है जाई ।।१९।। अवधू भजन भेद है न्यारा। क्या गाए क्या लिखि बतलाए क्या भरमे संसारा। क्या संध्या तरपन के कीन्हे जो नहिं तत्त विचारा ।। मूड़ मुँडाए जटा रखाए क्या तन लाए छारा। क्या पूजा पाहन की कीन्हे क्या फल किए अहारा ॥ बिन परचै साहब होइ बैठे करै विषय व्योपारा । शान ध्यान का मरम न जाने बाद करै हंकारा ॥