पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२७०

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( २४८ ) भोर भए सब आपु आपु को जहाँ तहाँ उडि जाई सुपने में ताहि राज मिल्यो है हाकिम हुकुम दोहाई । जागि परयो तव लाव न लसकर पलक खुले सुधि पाई॥ मात पिता बंधू सुत तिरिया ना कोइ सगो सगाई । यह तो सव स्वारथ के संगी झूठी लोक वड़ाई ।। सागर माँही लहर उठत है गनिता गनी न जाई। कहत कवीर सुनो भाई साधे दरिया लहर समाई ॥२१२।। मानत नहिं मन मोरा साधो, मानत नहिं मन मोरा रे। वार वार में कहि समुझावों जग से जीवन थोरा रे ॥ या काया को गरव न कीजै क्या साँवर क्या गोरा रे। विना भक्ति तन काम न आवै कोटि सुगंध चारा रे॥ या माया लख के मत भूलो क्या हाथी क्या घोरारे । जोरि जारि धन वहुत विगूचे लाखन कोटि करोरा रे ।। दुबिधा दुरमति औ चतुराई जनम गयो न चौरा रे । अजहूँ आनि मिला सत संगति सतगुरु मान निहारा रे॥ । खेत उठाइ परत भुइँ गिरि गिरिज्यों वालक विन कोरा रे। कहत कबीर चरन चित राखो ज्यों सूई विच डोरा रे ।।२१३।। खल सब रैन का सपना । समझ मन कोइ नहिं अपना ॥ कठिन यह मोह की धारा । वहा सब जात संसारा । घड़ा जो नीर का फूटा । पता जो डार से टूटा ॥ अइस नर जाति जिंदगानी। अबहुँ लग चेत अभिमानी ॥ भुला मत देख तन गोरा । जगत में जीवना थोरा॥ तजो मद लोभ चतुराई । रहो. निहसंक जग माहीं।। निकस जब प्रान जावेंगे। कोई नहिं काम आवेगे । सजन परिवार सुत दारा। उसी दिन हायँगे न्यारा ॥ अइस नर जान यह देहा । लगा ले नाम से नेहा ॥ . कट जम-जाल की फाँसी। कहै कबीर अविनासी ॥२१४॥