पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२७५

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तव पूरन गुरु हेतु असन्न विद्याइए। गुरू चरन परछालि तहाँ बहटाए ।। गज मोतिन की चौक सु तहाँ पुराइए । तापर नरियर धोति मिठाइ धराइए ।। केरा और कपूर बहुत विध लाइए । अष्ट सुगंध सुपारी पान मँगाइए । पल्लव कलस सँवारि सुज्योति वराइए। लाल मृदंग वजाइ के मंगल गाइए । साधु संग लै भारति तबहिं उतारिए । आरति करि पुनि नरियर तबहिं भराइए । पुरुख को भोग लगाइ सखा मिलि खाइए । युग युग छुधा बुझाइ तो पाइ अघाइए । परम अनंदित होइ तो गुरुहि मनाइए। कह कवीर सतभाय सो लोक सिधाइए ।।२२८।।