पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/७२

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अपरिमित ज्ञान का भंडार है, पत्ते पत्ते में शिक्षापूर्ण पाठ है, परंतु उनसे लाभ उठाने के लिये अनुभव आवश्यक है। अग्नि में दाहिका शक्ति है, पत्थर में हम उसे अविकसित अवस्था में पाते हैं। वह विकसित होती है, किंतु किसी आधार से। धर्म की लहरें संसार में व्याप्त हैं। परंतु उनके अंशों के उद्भावनकर्ता भी हैं। पृथ्वी आज भी घूमती है, पहले भी घूमती थी, आगे भी घूमती रहेगी। उसमें आकर्पिणी शक्ति पहले भी थी, अव भी है, आगे भी रहेगी। परंतु इन वातों का आविष्कार करके संसार को लाभ पहुंचानेवाले भास्कराचार्य इत्यादि आर्य विद्वान् अथवा गेलीलियो और न्यूटन हैं। क्या इन आविष्कारकों का संसार को कृतज्ञ न होना चाहिए ? जिन आधारों से अग्नि का विकास होता है, क्या वे उसके उपकारक अथवा उपयोगी नहीं? इसी प्रकार वह विचारपरंपरा कि जिससे किसी आत्मनिर्भर- शील महात्मा की आत्मा विकसित होती है, क्या अनादरणीय और अमाननीय है ? क्या वे ग्रंथ, जिन्होंने संसार को सबसे प्रथम उस विचारपरंपरा से अभिज्ञ किया, इस कारण निंदा के योग्य हैं कि उनके नाम से कई स्वार्थी आत्माएँ कदा- चार और मिथ्याचार में प्रवृत्त रहें ? यदि वे निंदा के योग्य हैं, तो सत्य का अपलाप हुआ या नहीं? वास्तविकता उपेक्षित हुई या नहीं? और क्या ऐसा करना किसी महान् आत्मा का कर्तव्य है? कोई आत्म-निर्भर-शील महात्मा यदि अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिये ऐले ग्रंथों की सहायता ग्रहण करे, तो उसका आर्यपथ और विस्तृत होगा, उसको सुकरता छोड़ दुरूहता का सामना न करना पड़ेगा। परंतु यदि उस की अप्रवृत्ति हो, तो वह ऐसा नहीं भी कर सकता है। परंतु उसका यह कर्त्तव्य कदापि न होगा कि एक असंगत वात के