पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/७७

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' ( ७१ ) पूरी चिंताशीलता का परिचय नहीं दिया जाता। सदाचार, ईश्वर-विश्वास और शील की आवश्यकता मनुष्य मात्र को है । जो ईश्वर-विश्वासी नहीं हैं, उदार औरसत्शील का समा- दर वे भी करते हैं, वरन् दृढ़ता से करते हैं। मजहब इन्हीं वातों की शिक्षा तो देते हैं ! फिर मजहब की आवश्यकता क्यों नहीं? धर्म के सार्वभौम सिद्धांत सव मजहबों में पाए जाते हैं। क्योंकि उन सवका उद्गम स्थान एक है। तारतम्य होना स्वाभाविक है। परंतु सब मजहबों में वे इतनी मात्रा में मौजूद हैं कि मनुष्य उनके द्वारा सदाचार इत्यादि सीख सके। देशाचार, कुलाचार, अनेक सामाजिक रीति-रस्म, सदाचार इत्यादि बाहरी आवरण मात्र हैं। उनकी आवश्यकता एक- देशीय है। अनेक दशाओं में वे उपेक्षित हो जाते हैं। किंतु धर्म के सार्वभौम सिद्धांत मनुष्य मात्र के लिये आवश्यक है, और ऐसी अवस्था में कोई विद्वान् या महात्मा. यह नहीं कह सकता कि मेरा कोई धर्म नहीं । वास्तविक बात तो यह है कि संसार की कोई वस्तु विना धर्म के नहीं है। हम लोग वैदिक मार्ग को ही इसीलिये धर्म के नाम से अभिहित करते हैं। मजहब और रिलिजन संज्ञाएँ इतनी व्यापक नहीं हैं। वैदिक धर्म में अधिकारी-भेद है, इसलिये यह पात्र के अनुसार धर्म की व्यवस्था करता है। साथ ही यह भी कहता है- सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति.भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षौकसंग्रहम् ॥ केवलं शास्त्रमाश्रित्यं न कर्त्तव्यो विनिर्णयः। युक्तिहीनविचारेण धर्महानिः प्रजायते ॥ . युक्ति-युक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि । ' अन्य तृणमिव त्याज्यमप्युक्तं पद्मजन्मनाः ॥