पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/८५

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से कोई संबंध नहीं रखती। वे मूर्तियों को स्वयं व्यापक और शक्तिमान कहते हैं, न कि ईश्वरोपासन का साधन (जैसा कि हिंदुओं का विचार है)। वे इनको पृथ्वी का ईश्वर मानते हैं, और परमेश्वर को आकाश का और यही द्वैत है। ___ मसनवी गुलशनेजार में महमूद शविस्तार ने कहा है- "अगर मुसल्मान दरअस्ल बुत की माहियत समझ सकता, तो उसके लिये इस बात का जानना मुश्किल नहीं था कि वुतपरस्ती भी सच्चा मजहब है।" -आयंगजट जिल्द १०, नं० १६, सफहा ६, मतवून १० मई सन् १९०६ । एक पत्थर चूमने को शेख जी कावा गए । जौक हर वुत काविले वोसा है इस वुतखाने में ॥-जोक । न देखा देर में तो क्या हरम में देखेगा। वह तेरे पेश नजर याँ नहीं तो वाँ भी नहीं ॥ दुई का पर्दा उठा दिल से और आँख से देख । खुदा के नूर को हुस्ने बुताँ के परदे में ॥-जफर । अव कुछ अन्य अनुमतियों को भी देखिए । श्रीमान् प्रिय- र्सन साहव अपने धर्मेतिहास में लिखते हैं- "हिंदुओं में वहुदेववाद और मूर्तिपूजा है। किंतु वह उनके गंभीरतर धर्म मत का आवरण मात्र है। -प्रवासी, दशम भाग, पृष्ठ ५३८ वावू मन्मथनाथ दत्त एम. ए., एम.आर.ए.एस. लिखते हैं- "दरख्त को उसके फलों से पहचानते हैं। हमने जब उन आदमियों में, जिन्हें चुतपरस्त कहा जाता है, वह शराफत, वह खुलूस-इरादत और रूहानी इश्क देखा, जो और कहीं नहीं पाया जाता, तो खुद अपने दिल में सवाल किया-क्या गुनाह से नेकी पैदा हो सकती है ?"