पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/९६

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( ९० ) मिथ्याचारों का प्रतिवाद तीव और असंयत भाषा में करते हैं। परंतु उसे हमें सह्य करना चाहिए, दो विचारों से । एक तो यह कि यदि हमने वास्तव में धर्म के साधनों को आडंवर वना लिया है, तो किसी न किसी के मुख से हमको ऐसी बातें सुननी ही पड़ेगी, दूसरे यह कि यदि ये अधिकांश अमूलक हैं, तो भी कोई क्षति नहीं क्योंकि देखिए, भगवान मनु क्या कहते हैं- सम्मानाद ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विपादिव । अमृतस्येव चाकांतेदवमानस्य सर्वदा ॥ ब्राह्मण को चाहिये कि सम्मान से विप के समान बचे, और अपमान की अमृत के तुल्य इच्छा करे। इससे अधिक मुझे और नहीं कहना है । प्राशा है, श्राप लोग 'कवीर वचनावली' का उचित समादर करेंगे और प्रसिद्ध मासिक पत्रिका सरस्वती भाग १५ ग्वंड १ संख्या ४३०७ में प्रकाशित विद्ववर श्रीयुत रवींद्रनाथ ठाकुर के निम्नलिखित वाक्य को सदा स्मरण रग्मंगे। भारत की चिरकाल से यही चेष्टा देखी जाती है कि वह अनेकता में एकता स्थापित करना चाहता है। वह अनेक मार्गों को एक लन्य की तरफ अभिमुख करना चाहता है। वह यहुन के बीच किसी एक को निःसंशय रूप से, अंतरनर रूप से, उपलब्ध करना चाहता है। उसका निशांत या उद्देश्य यह है कि बाहर जो विभिन्नता दंग्स पढ़ती है, उस नष्ट करके उसके अंदर जा निगृढ़ संयोग देन्य पढ़ना है, या उन प्राप्त की।" हरियोध।