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चौथा अंक
पहला दृश्य

[ प्रातःकाल का समय। ज़ियाद फ़र्श पर बैठा हुआ सोच रहा है। ]

ज़ियाद---( स्वगत ) उस वफ़ादारी की क्या क़ीमत है, जो महज़ ज़बान तक महदूद रहे? कूफ़ा के सभी सरदार, जो मुस्लिम बिन अकील से जंग करते वक्त ख़म ठोक रहे थे, अब हुसैन बिन अली से जंग करते वक्त बग़लें झाँक रहे हैं। कोई इस मुहिम को अंजाम देने का बीड़ा नहीं उठाता। अाक़बत और नजात की आड़ में सब-के-सब पनाह ले रहे हैं। क्या अक़्ल है, जो दुनिया को अक़बा की ख़याली नियामतों पर क़ुरबान कर देती है। मजहब! तेरे नाम पर कितनी हिमाकतें सबाब समझी जाती हैं, तूने इन्सान को कितना बातिलपरस्त, कितना कमहिम्मत बना दिया है!

[ उमर साद का प्रवेश। ]

साद---अस्सलामअलेक। या अमीर, आपने क्यों याद फ़रमाया?

ज़ियाद---तुमसे एक खास मामले में सलाह लेनी है। तुम्हें मालूम है, 'रै' कितना ज़रखेज़, आबाद और सेहतपरवर सूबा है?

साद---खूब जानता हूँ हुज़ूर, वहाँ कुछ दिनों रहा हूँ, सारा सूबा मेवे के बाग़ों और पहाड़ी चश्मों से गुलजार बना हुआ है। बाशिन्दे निहायत खलीक़ और मिलनसार। बीमार आदमी वहाँ जाकर तवाना हो जाता है।

ज़ियाद---मेरी तजवीज़ है कि तुम्हें उस सूबे का आमिल बनाऊँ। मंजूर करोगे?

साद---( बन्दगी कर के ) सिर और आँखों से। इस क़द्रदानी के लिए क़यामत तक शुक्रगुज़ार रहूँगा।

ज़ियाद---माक़ूल सालाना मुशाहरे के अलावा तुम्हें घोड़े, नौकर, ग़ुलाम सरकार की तरफ़ से मिलेंगे।

साद---ऐन बन्दानेवाज़ी है। खुदा आपको हमेशा खुशखुर्रम रखे।