पृष्ठ:कर्बला.djvu/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८०
कर्बला

काफी है, फ़ौज भेज देना कौन-सा आईने-जंग है। हाय! हाय ख़ुदा, ग़ज़ब हो गया। अब नहीं देखा जाता---

[ छाती पीटकर रोने लगती है। शिमर वहब का सिर काटकर फेंक देता है, कमर दौड़कर सिर को गोद में उठा लेती है, और उसे आँखों से लगाती है। ]

कम़र---मेरे सपूत बेटे, मुबारक है यह घड़ी कि मैं तुझे अपनी आँखों से हक़ पर शहीद होते देख रही हूँ। आज तू मेरे क़र्ज से अदा हो गया, आज मेरी मुराद पूरी हुई, आज मेरी ज़िन्दगी सफल हो गयी, मैं अपनी सारी तकलीफ का सिला पा गयी। खुदा तुझे शहीदों के पहलू में जगह दे। नसीमा, मेरी जान, आज तूने सच्चा सोहाग पाया है, जो क़यामत तक तुझे सुहागिन बनाये रखेगा। अब हूरें तेरे तलुओं तले आँखें बिछायेंगी, और फ़रिश्ते तेरे क़दमों की खाक का सुरमा बनायेंगे।

[ वहब का सिर नसीमा की गोद में रख देती है, नसीमा सिर को गोद में रखे हुए बैन करके रोती है। ]

काजल बना-बनाके तेरी ख़ाके-दर को मैं,
रोशन करूँगी अपनी सवादे-नज़र को मैं।
आँसू भी खुश्क हो गये, अल्लाह रे सोज़े-ग़म,
क्योंकर बुझाऊँ आतिशे-दाग़े-ज़िगर को मैं।
तेरे सिवा है कौन, जो बेकस की ले ख़बर,
आती न तेरे दर पर, तो जाती किधर को मैं?
तलवार कह रही है जवानाने-कौम से---
मुद्दत से ढूँढ़ती हूँ तुम्हारी क़मर को मैं।
बाज़ आयी मैं दुआ ही से, यारब कि कब तलक,
करती फिरूँ तलाश जहाँ में असर को मैं।
गर तेरी ख़ाके-दर से न मिलता यह इफ़्तख़ार,
करती न यों बुलन्द कमी अपने सिर को मैं।

हाय प्यारे! तुम कितने बेवफ़ा हो, मुझे अकेले छोड़कर चले जाते हो! लो, मैं भी आती हूँ! इतनी जल्दी नहीं, ज़रा ठहरो।