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और आधी रात तक डटे रहते थे भी भीमकाय। भोजन तो एक ही बार करते थे। पर खूब डटकर। दो-ढाई सौ मुग्दर के हाथ अभी तक फेरते थे। अमरकान्त की माता का उसके बचपन ही में देहान्त हो गया था। समरकान्त ने मित्रों के कहने सूनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नयी माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया ; लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया, कि उसकी नयी माता उसकी ज़िद और शरारतों को उस क्षमादृष्टि से नहीं देखतीं, जैसे उसकी माँ देखती थी। वह अपनी माँ का अकेला लाड़ला लड़का था, बड़ा जिद्दी, बड़ा नटखट। जो बात मुँह से निकल जाती उसे पूरा करके ही छोड़ता। नई माताजी बात बात पर डाँटती थीं। यहाँ तक कि उसे माता से द्वेष हो गया। जिस बात को वह मना करतीं, उसे वह अदबदाकर करता। पिता से भी ढीठ हो गया। पिता और पुत्र में स्नेह का बन्धन न रहा। लालाजी जो काम करते, बेटे को उससे अरुचि होती। वह मलाई के प्रेमी थे, बेटे को मलाई से अरुचि थी। वह पूजा-पाठ बहुत करते थे, लड़का इसे ढोंग समझता था। वह परले सिरे के लोभी थे, लड़का पैसे को ठीकरा समझता था।

मगर कभी-कभी वराई से भलाई पैदा हो जाती है। पुत्र सामान्य रीति से पिता का अनुगामी होता है। महाजन का बेटा महाजन, पण्डित का पण्डित, वकील का वकील, किसान का किसान होता है ; मगर यहाँ इस द्वेष ने महाजन के पुत्र को महाजन का शत्रु बना दिया। जिस बात का पिता ने विरोध किया, वह पुत्र के लिए मान्य हो गयी, और जिसको सराहा, वह त्याज्य। महाजनी के हथकण्डे और षडयन्त्र उसके सामने रोज़ ही रचे जाते थे। उसे इस व्यापार से घृणा होती थी। इसे चाहे पूर्वसंस्कार कह लो; पर हम तो यही कहेंगे, कि अमरकान्त के चरित्र का निर्माण पितृ-द्वेष के हाथों हुआ।

खारयत यह हुई कि उसके कोई सौतेला भाई न हुआ। नहीं शायद वह घर से निकल गया होता। समरकान्त अपनी सम्पत्ति को पुत्र से ज्यादा मूल्यवान् समझते थे। पुत्र के लिए तो सम्पत्ति की कोई जरूरत न थी; पर सम्पत्ति के लिए पुत्र की जरूरत थी विमाता की तो इच्छा यही थी, कि उसे बनवास देकर अपनी चहेती नैना के लिए रास्ता साफ कर दे; पर समर

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