'तुम जो कुछ दो वह सिर और आंखों पर।'
अमर इस तरह अकड़ता हुआ जा रहा था, गोया दुनिया की बादशाही पा गया है।
सकीना ने द्वार बन्द करके दादी से कहा--तुम नाहक दौड़धूप कर रही हो अम्मा। मैं शादी न करूँगी।
'तो क्या यों ही बैठी रहोगी?'
'हां जब मेरी मर्जी होगी, तब कर लूँगी।'
'तो क्या मैं हमेशा बैठी रहुँगी?'
'जब तक मेरी शादी न हो जायगी, आप बैठी रहेंगी !'
'हँसी मत कर! मैं सब इन्तजाम कर चुकी।'
'नहीं अम्मा, मैं शादी न करूँगी और मुझे दिक करोगी तो जहर खा लूँगी। शादी के खयाल से मेरी रूह फना हो जाती है !'
'तुझे क्या हो गया सकीना ?'
'मैं शादी नहीं करना चाहती, बस। जब तक कोई ऐसा आदमी न हो, जिसके साथ मुझे आराम से ज़िन्दगी बसर होने का इत्मीनान हो, मैं यह दर्द-सर नहीं लेना चाहती। तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो, जहाँ जिन्दगी तल्ख हो जायगी। शादी का मन्शा यह नहीं है, कि आदमी रो-रोकर दिन काटे।
पठानिन ने अंगीठी के सामने बैठकर सिर पर हाथ रख लिया और सोचने लगी--लड़की कितनी बेशर्म है।
सकीना बाजरे की रोटियां मसूर की दाल के साथ खाकर, टूटी खाट पर लेटी और पुराने फटे हुए लिहाफ़ में सर्दी के मारे पांव सिकोड़ लिये पर उसका हृदय आनन्द से परिपूर्ण था। आज उसे जो विभूति मिली थी, उसके सामने संसार की संपदा तुच्छ थी, नगण्य थी।
१४
अमरकान्त के जीवन में एक नयी स्फूर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी