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आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट्र से कम से कम लेकर अधिक से अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे। और एक यह अध्यापक है, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज्य कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दम्भ है, वहीं धन-मद है, वही अधिकार मद है। हमारे विद्यालय क्या है राज्य के विभाग हैं, और हमारे अध्यापक उसी राज्य के अंग हैं। ये खुद अन्धकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलायेंगे। वे आप अपने मनोविकारों के कैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के गुलाम है, और अपने शिष्यों को भी उसी कैद और गलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना फिर अतीत का स्वप्न देखती। परिस्थितियों को वह बिलकूल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट्र के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अध्यापक झोपड़ी में रहनेवाले, वल्कलधारी, कंदमूल फल भोगी संन्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित; न यह आये दिन के टंटे न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरत क्या ? यह बड़े-बड़े महकमे किस लिए ? ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिद्धों का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानों लोभ और स्वार्थ ही विद्वत्ता का लक्षण है ! गरीबों को रोटियां मयस्सर नहीं, कपड़ों को तरसते हों; पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बँगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है, तो वह अन्यायी है; ईश्वर ने रचा है, तो उसे क्या कहें !

यही भावनाएँ अमर के अन्तस्तल में लहरों की भाँति उठती रहती थीं।

वह प्रातःकाल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुँच जाता और दोपहर तक वहाँ लड़कों को पढ़ाता रहता। शाला डाक्टर साहब के बँगले में थी। नौ बजे तक डाक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फीस बिल्कुल न ली जाती थी, फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहाँ फीस और जुरमाने और चन्दों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहाँ कोई झाँकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोट भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो, कैसे वे साहसी, सन्तोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौन्दर्य बोध जो मानव प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दुषित वातावरण से

कर्मभूमि
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