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अलग रह कर अपनी पूर्णता पाये, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रख कर ही वह साधनों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएँ, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द संन्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे। दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी थी।

एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा--आप आखिर कब तक प्रोफेसरी करते चले जायेंगे ? जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता।

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा--मैं खुद यही सोच रहा हूँ भाई; पर सोचता हूँ, रुपये कहाँ से आयेंगे। कुछ खर्च नहीं है, तो भी पांच सौ में तो सन्देह है नहीं।

'आप इसकी चिन्ता न कीजिए ! कहीं-न-कहीं से रुपये आ ही जायँगे। फिर रुपये की जरूरत क्या है?'

'मकान का किराया है, लड़कों के लिए किताबें हैं, और बीसों ही खर्च हैं। क्या-क्या गिनाऊँ ?'

'हम किसी वृक्ष के नीच दो लड़कों को पढ़ा सकते हैं।'

'तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का बिलकुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद, खयाली पुलाव है।'

अमर ने चकित होकर कहा--मैं तो समझता था, आप भी आदर्शवादी हैं।

शान्तिकुमार ने मानों इस चोट को ढाल पर रोककर कहा--मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता का भी स्थान है।

'इसका अर्थ यह है कि आप गुड़ खाते हैं, गुलगुले से परहेज करतें हैं।'

'जब तक मुझे रुपये कहीं से मिलने न लगें, तुम्हीं सोचो मैं किस आधार पर नौकरी का परित्याग कर दूं। पाठशाला मैंने खोली है। इसके संचालन का

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कर्मभूमि