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कान्त इस विषय में निश्चल रहे। मजा यह था कि नैना स्वयं भाई से प्रेम करती थी, और अमरकान्त के हृदय में अगर घरवालों के लिए कहीं कोमल स्थान था, तो वह नैना के लिए था। नैना की सूरत भाई से इतनी मिलती-जुलती थी, जैसे सगी बहन हो। इस अनुरूपता ने उसे अमरकान्त के और भी समीप कर दिया था। माता-पिता के इस दुर्व्यवहार को वह इस स्नेह के नशे में भुला दिया करता था। घर में कोई बालक न था और नैना के लिए किसी साथी का होना अनिवार्य था। माता चाहती थी, नैना भाई से दूर रहे। वह अमरकान्त को इस योग्य न समझती थी कि वह उसकी बेटी के साथ खेले। नैना की बाल-प्रकृति इस कूटनीति के झुकाये न झुकी। भाई-बहन में यह स्नेह यहाँ तक बढ़ा कि अन्त में विमातृत्व ने मातृत्व को भी परास्त कर दिया। विमाता ने नैना को भी आँखों में गिरा दिया, और पुत्र की कामना लिये संसार से विदा हो गयी।

अब नैना घर में अकेली रह गई। समरकान्त बाल-विवाह की बुराइयां समझते थे। अपना विवाह भी न कर सके। वृद्ध-विवाह की बुराइयां भी समझते थे। अमरकान्त का विवाह करना जरूरी हो गया। अब इस प्रस्ताव का विरोध कौन करता?

अमरकान्त की अवस्था १९ साल से कम न थी; पर देह और बुद्धि को देखते हुए, अभी किशोरावस्था ही में था। देह का दुर्बल, बुद्धि का मंद। पौधे को कभी मुक्त प्रकाश न मिला, कैसे बढ़ता, कैसे फैलता। बढ़ने और फैलने के दिन कुसंगति और असंयम में निकल गये। दस साल पढ़ते हो गये थे और अभी ज्यों-त्यों करके आठवें में पहुँचा था। किन्तु विवाह के लिए यह बातें नहीं देखी जातीं। देखा जाता है धन, विशेषकर उस बिरादरी में जिसका उद्यम ही व्यवसाय हो। लखनऊ के एक धनी परिवार से बात-चीत चल पड़ी। समरकान्त की तो लार टपक पड़ी। कन्या के घर में विधवा माता के सिवा निकट का सम्बन्धी न था, और धन की कहीं थाह नहीं। ऐसी कन्या बड़े भागों से मिलती है। उसकी माता ने बेटे की साथ बेटी से पूरी की थी। त्याग की जगह भोग, शील की जगह तेज, कोमल की जगह तीव्र का संस्कार किया था। सिकुड़ने और सिमटने का उसे अभ्यास न था और वह युवक-प्रकृति की युवती व्याही गयी युवती प्रकृति के युवक से, जिसमें

कर्मभूमि