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अख़बार भी खाट पर रखा हुआ होता था। पठानिन को अपने अच्छे दिनों में भी इससे ज़्यादा समृद्धि न हुई थी। बस उसे अगर कोई गम था तो यह कि सकीना शादी पर राज़ी न होती थी।

अमर यहाँ से चला तो अपनी भूल पर लज्जित था। सकीना के एक ही वाक्य ने उसके मन की सारी शंका शान्त कर दी थी। डाक्टर साहब में उसकी श्रद्धा फिर उतनी ही गहरी हो गई थी। सकीना की बुद्धिमत्ता, विचार-सौष्ठव, सूझ और निर्भीकता ने उसे चकित और मुग्ध कर दिया था। सकीना से उसका परिचय जितना ही गहरा होता था, उतना ही उसका असर भी गहरा होता था। सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे अप्रिय था। सकीना अपती नम्रता और मधुरता से उस पर शासन करती थी। यह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकीना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुद्धिमान और कुशल समझती थी। सकीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या हूँ ?

डाक्टर साहब ने मुस्कराकर पूछा--तो तुम्हारा यही निश्चय है कि मैं इस्तीफा दे दूँ ? वास्तव में मैंने इस्तीफ़ा लिख रखा है और कल दे दूँगा। तुम्हारा सहयोग मैं नहीं खो सकता। मैं अकेला कुछ भी न कर सकूँगा। तुम्हारे जाने के बाद मैंने ठण्डे दिल से सोचा, तो मालूम हुआ, मैं व्यर्थ के मोह में पड़ा हुआ हूँ। स्वामी दयानन्द के पास क्या था जब उन्होंने आर्य-समाज की बुनियाद डाली ?

अमरकान्त भी मुसकराया--नहीं, मैंने ठण्डे दिल से सोचा, तो मालूम हुआ कि मैं गलती पर था। जब तक रुपये का माकूल इन्तज़ाम न हो जाय, आपको इस्तीफ़ा देने की ज़रूरत नहीं।

डाक्टर साहब ने विस्मय से कहा--तुम व्यंग्य कर रहे हो ?

'नहीं, मैंने आपमे बेअदबी की थी। उसे क्षमा कीजिए।'


१५


इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेम्बर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धेला भी खर्च न करना पड़ा और वह चुन लिया

कर्मभूमि
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