पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/११३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


मल्ल युद्ध होता रहा। युवक में चुस्ती थी, फुर्ती थी, लचक थी, बूढ़े में पेंच था, दम था, रोब था। पुराना फिकैत बार बार उसे दबाना चाहता था; पर जवान पट्ठा नीचे से सरक जाता था। कोई हाथ, कोई घात न चलता था।

अन्त में लाल जी ने जामे से बाहर होकर कहा--तो बाबा, तुम अपने बाल-बच्चे लेकर अलग हो जाओ, मैं तुम्हारा बोझ नहीं सँभाल सकता। इस घर में रहोगे, तो किराया और घर में जो कुछ खर्च पड़ेगा, उसका आधा चुपके से निकालकर रख देना पड़ेगा। मैंने तुम्हारी ज़िन्दगी भर का ठेका नहीं लिया है। घर को अपना समझो तो तुम्हारा सब कुछ हैं। ऐसा नहीं समझते, तो यहाँ तुम्हारा कुछ नहीं है। जब मैं मर जाऊँ, तो जो कुछ हो आकर ले लेना।

अमरकान्त पर बिजली-सी गिर पड़ी। जब तक बालक न हुआ था, और वह घर से फटा-फटा रहता था, तब उसे आघात की शंका दो-एक बार हुई थी, पर बालक के जन्म के बाद से लालाजी के व्यवहार और स्वभाव में वात्सल्य की स्निग्धता आ गयी थी। अमर को अब इस कठोर आघात की बिलकुल शंका न रही थी। लालाजी को जिस खिलौने की अभिलाषा थी, उन्हें वह खिलौना देकर अमर निश्चिन्त हो गया था, पर आज उसे मालूम हुआ, वह खिलौना माया की ज़ंजीरों को न तोड़ सका।

पिता पुत्र की टालमटोल पर नाराज़ हो धुड़के-झिड़के, मुँह फुलाये, यह तो उसकी समझ में आता था, लेकिन पिता पुत्र से घर का किराया और रोटियों का खर्च माँगे, यह तो माया-लिप्सा की निर्मम पराकाष्ठा थी। इसका एक ही जवाब था, कि वह आज ही सुखदा और उसके बालक को लेकर कहीं और जा टिके। और फिर पिता से कोई सरोकार न रखे। और अगर सुखदा आपत्ति करे, तो उसे भी तिलांजलि दे दे।

उसने स्थिर भाव से कहा--अगर आपकी यही इच्छा है तो यही सही।

लालाजी ने खिसिया कर पूछा--सास के बल पर कूद रहे होगे ?

अमर ने तिरस्कार-स्वर में कहा--दादा, आप घाव पर नमक न छिड़कें। जिस पिता ने जन्म दिया, जब उसके घर में मेरे लिए स्थान नहीं है, तो क्या आप समझते हैं, मैं सास और ससुर की रोटियाँ तोड़ूँगा ? आपकी दया से इतना नीच नहीं हूँ। मज़दूरी कर सकता हूँ और पसीने की कमायी खा

कर्मभूमि
११३