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सहसा अमर ने आकर कहा--तुमने आज दादा की बातें सुन ली ? अब क्या सलाह है ?

'सलाह है, आज ही यहाँ से विदा हो जाना चाहिए। यह फटकार पाने के बाद तो मैं इस घर में पानीपीना हराम समझती हूँ। कोई घर ठीक कर लो।'

'वह तो ठीक कर आया! छोटा-सा मकान है, साफ़-सुथरा, नीचीबाग़ में। १०) किराया है।'

'मैं भी तैयार हूं।'

'तो एक ताँगा लाऊँ?'

'कोई जरूरत नहीं ? पाँव-पाँव चलेंगे।'

'सन्दूक, बिछावन यह सब तो ले चलना ही पड़ेगा।'

'इस घर में हमारा कुछ नहीं है। मैंने तो सब गहने भी उतार दिये। मजदूरों की स्त्रियाँ गहने पहनकर नहीं बैठा करतीं।'

स्त्री कितनी अभिमाननी है, यह देखकर अमरकान्त चकित हो गया। बोला--लेकिन गहने तो तुम्हारे हैं। उनपर किसी का दावा नहीं है। फिर आधे से ज्यादा तो तुम अपने साथ लाई थीं।

'अम्मा ने जो कुछ दिया, दहेज की पुरौती में दिया। लालाजी ने जो कुछ दिया, वह यह समझ कर दिया कि घर ही में तो है। एक-एक चीजः उनको बही में दर्ज है। मैं गहनों को भी दया की भिक्षा समझती हूँ। अब तो हमारा उसी चीज़ पर दावा होगा जो हम अपनी कमाई से बनवायेंगे।'

अमर गहरी चिन्ता में डूब गया। यह तो इस तरह नाता तोड़ रही है, कि एक तार भी बाकी न रहे। गहने औरतों को कितने प्रिय होते हैं, यह वह जानता था। पुत्र और पति के बाद अगर उन्हें किसी वस्तु से प्रेम होता है, तो वह गहने हैं। कभी-कभी तो गहनों के लिए वह पुत्र और पति से भी तन बैठती हैं। अभी घाव ताज़ा है, कसक नहीं है। दो-चार दिन के बाद यह वितृष्णा जलन और असन्तोष के रूप में प्रकट होगी। फिर तो बात-बात पर ताने मिलेंगे, बात-बात पर भाग्य का रोना होगा। घर में रहना मुश्किल हो जायगा।

बोला--मैं तो यह सलाह न दूँगा सुखदा। जो चीज अपनी है, उसे अपने साथ ले चलने में मैं कोई बुराई नहीं समझता।

कर्मभूमि
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