पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

सुखदा ने पति को सगर्व दृष्टि से देखकर कहा--तुम समझते होगे में गहनों के लिए कोने में बैठकर रोऊँगी और अपने भाग्य को कोसूँगी। स्त्रियाँ अवसर पड़ने पर कितना त्याग कर सकती हैं, यह तुम नहीं जानते। मैं इस फटकार के बाद इन गहनों की ओर ताकना भी पाप समझती हूं, इन्हें पहनना तो दूसरी बात है। अगर तुम डरते हो, कि मैं कल ही से तुम्हारा सिर खाने लगूँगी, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि अगर गहनों का नाम मेरी ज़बान पर आये तो ज़बान काट लेना। मैं यह भी कहे देती हूँ, कि मैं तुम्हारे भरोसे पर नहीं जा रही हूँ। अपनी गुजर-भर को आप कमा लूँगी। रोटियों में ज्यादा खर्च नहीं होता। खर्च होता है आडम्बर में। एक बार अमीरी की शान छोड़ दो, फिर चार आने पैसे में काम चलता है।

नैना भाभी को गहने उतारकर रखते देख चुकी थी। उसके प्राण निकले जा रहे थे, कि अकेली इस घर में कैसे रहेगी। बच्चे के बिना तो वह घड़ी भर भी नहीं रह सकती। उसे पिता, भाई, भावज सभी पर क्रोध आ रहा था। दादा को क्या सूझी? इतना धन तो घर में भरा है, वह क्या होगा! भैया ही घड़ी भर दूकान पर बैठ जाते तो क्या बिगड़ा जाता था। भाभी को भी न जाने क्या सनक सबार हो गई। वह न जाती, तो भैया दो-चार दिन में फिर लौट ही आते। भाभी के साथ वह भी चली जाय, तो दादा को भोजन कौन देगा। किसी और के हाथ का बनाया खाते भी तो नहीं ! वह भाभी को समझाना चाहती थी; पर कैसे समझाये। यह दोनों तो उसकी तरफ़ आँखें उठाकर देखते भी नहीं। भैया ने अभी से आँखें फेर ली। बच्चा भी कैसा खुश है। नैना के दुःख का पारावार नहीं है।

उसने जाकर बाप से कहा--दादा, भाभी तो सब गहने उतारकर रखे जाती हैं।

लालाजी चिन्तित थे। कुछ बोले नहीं। शायद सुना ही नहीं।

नैना ने जरा और जोर से कहा--भाभी अपने सब गहने उतारकर रखे देती हैं।

लालाजी ने अनमने भाव से सिर उठाकर कहा--गहने क्या कर रही हैं ?

'उतार-उतारकर रखे देती हैं।'

११२
कर्मभूमि