'तो में क्या करूँ?'
'तुम उनसे जाकर कहते क्यों नहीं ?'
'वह नहीं पहनना चाहती, तो मैं क्या करूँ!'
'तुम्हीं ने उनसे कहा होगा, गहने मत ले जाना। क्या तुम उनके ब्याह के गहने भी ले लोगे ?'
'हाँ, मैं सब ले लूंँगा। इस घर में उसका कुछ भी नहीं है।'
'यह तुम्हारा अन्याय है।'
'जा अन्दर बैठ, बक-बक मत कर!'
'तुम जाकर उन्हें समझाते क्यों नहीं?'
'तुझे बड़ा दर्द है, तू ही क्यों नहीं समझाती ?'
'मैं कौन होती हूँ समझानेवाली। तुम अपने गहने ले रहे हो, तो वह मेरे कहने से क्यों पहनने लगीं ?'
दोनों कुछ देर तक चुपचाप रहे। फिर नैना ने कहा--मुझसे यह अन्याय नहीं देखा जाता। गहने उनके है। ब्याह के गहने तुम उनसे नहीं ले सकते।
'तू यह कानून कब से जान गई ?'
'न्याय क्या है, और अन्याय क्या है, यह सिखाना नहीं पड़ता। बच्चे को भी बेक़सूर सजा दो तो वह चुपचाप न सहेगा।'
'मालूम होता है, भाई से यही विद्या सीखती है ?'
'भाई से अगर न्याय-अन्याय का ज्ञान सीखती हूँ, तो कोई बुराई नहीं।'
'अच्छा भाई, सिर मत खा, कह दिया अन्दर जा। मैं किसी को मनाने-समझाने नहीं जाता। मेरा घर है, इसकी सारी सम्पदा मेरी है। मैंने इसके लिए जान खपाई है। किसी को क्यों ले जाने दूं ?'
नैना ने सहसा सिर झुका लिया और जैसे दिल पर जोर डालकर कहा--तो फिर मैं भी भाभी के साथ चली जाऊँगी।
लालाजी की मुद्रा कठोर हो गयी--चली जा, मैं नहीं रोकता। ऐसी सन्तान से बे-सन्तान रहना ही अच्छा। खाली कर दो मेरा घर, आज ही खाली कर दो। खूब टाँगे फैलाकर सोऊँगा। कोई चिन्ता तो न होगी ? आज यह नहीं है, आज वह नहीं है, यह तो न सुनना पड़ेगा। तुम्हारे रहने से कौन सुख था मुझे।