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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/११८

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नैना लाल आँखें किये सुखदा से जाकर बोली--भाभी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।

सुखदा ने अविश्वास के स्वर में कहा--हमारे साथ ! हमारा तो अभी कहीं घर-द्वार नहीं है ! न पास पैसे हैं, न बरतन-भाँड़े, न नौकर-चाकर। हमारे साथ कैसे चलोगी ? इस महल में कौन रहेगा ?

नैना की आँखें भर आई--जब तुम्ही जा रही हो तो मेरा यहाँ क्या है।

पगली सिल्लो आई और टट्ठा मारकर बोली--तुम सब जने चले जाओ, अब मैं इस घर की रानी बनूंगी । इस कमरे में इसी पलंग पर मजे से सोऊँगी। कोई भिखारी द्वार पर आयेगा, तो झाड़ू लेकर दौडूंगी।

अमर पगली के दिल की बात समझ रहा था; पर इतना बड़ा खटला लेकर कैसे जाय। घर में एक ही तो रहने लायक कोठरी है। वहाँ नैना कहाँ रहेगी और यह पगली तो जीना मुहाल कर देगी। नैना से बोला--तुम हमारे साथ चलोगी, तो दादा का खाना कौन बनायेगा नैना ? फिर हम कहीं दूर तो नहीं जाते। मैं वादा करता हूँ, एक बार रोज़ तुमसे मिलने आया करूँगा। तुम और सिल्लो दोनों रहो। हमें जाने दो।

नैना रो पड़ी--तुम्हारे बिना इस घर में कैसे रहूँगी भैया, सोचो। दिन भर पड़े-पड़े क्या करूँगी। मुझसे तो छिन भर भी न रहा जायगा। मन्नू को याद कर-करके रोया करूँगी। देखती हो भाभी, मेरी ओर ताकता भी नहीं।

अमर ने कहा--तो मन्नू को छोड़ जाऊँ ? तेरे ही पास रहेगा।

सुखदा ने विरोध किया--वाह ! कैसी बात कर रहे हो। रो-रोकर जान दे देगा। फिर मेरा जी भी तो न मानेगा।

शाम को तीनों आदमी घर से निकले। पीछे-पीछे सिल्लो भी हँसती हुई चली जाती थी। सामने के दूकानदारों ने समझा कहीं नेवते जाती हैं; पर क्या बात है, किसी के देह पर छल्ला भी नहीं ! न चादर, न घराऊ कपड़े !

लाला समरकान्त अपने कमरे में बैठे हुक्का पी रहे थे। आँखें उठाकर भी न देखा।

एक घण्टे के बाद वह उठे, घर में ताला डाल दिया और फिर कमरे में आकर लेट रहे।

एक दुकानदार ने आकर पूछा--भैया और बीबी कहाँ गये लालाजी ?

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कर्मभूमि