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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/११९

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लालाजी ने मुँह फेरकर जवाब दिया। मुझे नहीं मालूम--मैंने सबको घर से निकाल दिया। मैंने धन इसलिए नहीं कमाया है कि लोग मौज उड़ायें। जो धन को धन समझे, वह मौज उड़ाये। जो धन को मिट्टी समझे उसे धन का मूल्य सीखना होगा । मैं आज भी अठारह घण्टे रोज़ काम करता हूँ। इसलिए नहीं कि लड़के धन को मिट्टी समझें। मेरी ही गोद के लड़के मुझे ही आँखें दिखायें। धन का धन दूँ, ऊपर से धौंस भी सुनूँ। बस, ज़बान न खोलूँ, चाहे कोई घर में आग लगा दे। घर का काम चूल्हे में जाय, तुम्हें सभाओं में, जलसों में आनन्द आता है, तो जाओ, जलसों से अपना निबाह भी करो। ऐसों के लिए मेरा घर नहीं है। लड़का वहीं है, जो कहना सुने। जब लड़का अपने मन का हो गया तो कैसा लड़का !

रेणुका को ज्योंही सिल्लो ने खबर दी, वह बदहवास दौड़ी आई, मानो बेटी और दामाद पर कोई बड़ा संकट आ गया है। वह क्या गैर थी, उससे क्या कोई नाता ही नहीं ? उसको खबर तक न दी और अलग मकान ले लिया। वाह ! यह भी कोई लड़कों का खेल है ? दोनों बिलल्ले। छोकरी तो ऐसी न थी, पर लौंडे के साथ उसका सिर भी फिर गया।

रात के आठ बज गये थे, हवा अभी तक गर्म थी। आकाश के तारे गर्द से धुंधले हो रहे थे। रेणुका पहुँची, तो तीनों निकलुए कोठे की एक चारपाई बराबर छत पर मन मारे बैठे थे। सारे घर में अन्धकार छाया हुआ था। बेचारों पर गृहस्थी की नई विपत्ति पड़ी थी। पास एक पैसा नहीं। कुछ न सूझता था, क्या करें !

अमर ने उसे देखते ही कहा--अरे ! तुम्हें कैसे खबर मिल गयी अम्मा जी ? अच्छा, इस चुड़ैल सिल्लो ने जाकर कहा होगा। कहाँ है, अभी खबर लेता हूँ।

रेणुका अँधेरे में जीने पर चढ़ने से हाँफ गयी थी। चादर उतारती हुई बोली--मैं क्या दुश्मन थी, कि मुझसे उसने कह दिया तो बुराई की? क्या मेरा घर न था, या मेरे घर रोटियाँ न थीं? मैं यहाँ एक क्षण-भर तो रहने न दूँगी। वहाँ पहाड़-सा घर पड़ा हुआ है, यहाँ तुम सब-के-सब एक बिल में घुसे बैठे हो। उठो अभी ? बच्चा मारे गर्मी के कुम्हला गया होगा। यहाँ खाटें भी तो नहीं हैं और इतनी-सी जगह में सोओगे कैसे? तू तो ऐसी न थी

कर्मभूमि
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