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पुरुषार्थ का कोई गुण नहीं। अगर दोनों के कपड़े बदल दिये जाते, तो एक दूसरे के स्थानापन्न हो जाते। दबा हुआ पुरुषार्थ ही स्त्रीत्व है।

विवाह हुए दो साल हो चुके थे; पर दोनों में कोई सामंजस्य न था। दोनों अपने अपने मार्ग पर चले जाते थे। दोनों के विचार अलग, व्यवहार अलग, संसार अलग। जैसे दो भिन्न जलवायु के जन्तु एक पिंजरे में बन्द कर दिये गये हों। हाँ तभी से अमरकान्त के जीवन में संयम और प्रयास की लगन पैदा हो गई थी। उसकी प्रकृति में जो ढीलापन, निर्जीवता और संकोच था वह कोमलता के रूप में बदलता जाता था। विद्याभ्यास में उसे अब रुचि हो गयी थी। हालाँकि लालाजी अब उसे घर के धन्धे में लगाना चाहते थे--वह तार-वार पढ़ लेता था और इससे अधिक योग्यता को उनकी समझ में जरूरत न थीपर अमरकान्त उस पथिक की भाँति, जिसने दिन विश्राम में काट दिया हो, अब अपने स्थान पर पहुँचने के लिए दूने वेग से कदम बढ़ाये चला जाता था।


स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहाँ एक बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसन्द की थी। इधर कई महीने में उसने दो घण्टे रोज सूत कातने की प्रतिज्ञा कर ली थी और पिता के विरोध करने पर भी उसे निभाये जाता था।

मकान था तो इतना बड़ा; मगर निवासियों की रक्षा के लिए उतना उपयुक्त न था, जितना धन की रक्षा के लिए। नीचे के तल्ले में कई बड़े बड़े कमरे थे जो गोदाम के लिए अनुकूल थे। हवा और प्रकाश का कहीं रास्ता नहीं। जिस रास्ते से हवा और प्रकाश आ सकता है, उसी रास्ते से चोर भी तो आ सकता है। चोर की शंका उसकी एक-एक ईंट से टपकती थी। ऊपर के दोनों तल्ले हवादार और खुले हुए थे। भोजन नीचे बनता था। सोना बैठना ऊपर होता था। सामने सड़क पर दो कमरे थे। एक में लालाजी बैठते थे, दूसरे में मुनीम। कमरों के आगे एक सायवान था, जिसमें गायें बँधती थीं। लालाजी पक्के गो भक्त थे।

कर्मभूमि