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अमर को अभी तक आशा थी कि दादा शायद सुखदा और नैना को बुला लेंगे; पर जब अब तक कोई बुलाने न आया और न वह खुद आये, तो उसका मन खट्टा हो गया।

उसने जल्दी से स्नान किया, पर याद आया, धोती तो है ही नहीं। गले की चादर पहन ली, भोजन किया और कुछ कमाने की टोह में निकला।

सुखदा ने मुँह लटकाकर पूछा--तुम तो ऐसे निश्चिंत होकर बैठे रहे, जैसे यहाँ सारा इन्तजाम किये जा रहे हो। यहाँ लाकर बिठाना ही जानते हो। सुबह से ग़ायब हुए, तो दोपहर को लौटे। किसी से कुछ काम-धंधे के लिए कहा, या खुदा छप्पर फाड़कर देगा ? यो काम न चलेगा, समझ गये ?

चौबीस घण्टे के अन्दर सुखदा के मनोभावों में यह परिवर्तन देखकर अमर का मन उदास हो गया। कल कितनी बढ़-बढ़कर बातें कर रही थी, आज शायद पछता रही है, कि क्यों घर से निकले?

रूखे स्वर में बोला--अभी तो किसी से कुछ नहीं कहा। अब जाता हूँ किसी काम की तलाश में।

मैं भी जरा जज साहब की स्त्री के पास जाऊँगी। उनसे किसी काम को कहूँगी। उन दिनों तो मेरा बड़ा आदर करती थीं। अब का हाल नहीं जानती।

अमर कुछ नहीं बोला--यह मालूम हो गया कि उसकी कठिन परीक्षा के दिन आ गये।

अमरकान्त को बाजार के सभी लोग जानते थे। उसने खद्दर की दुकान से कमीशन पर बेचने के लिये कई थान खद्दर, खद्दर की साड़ियाँ, जम्पर, कुरते, चादरें आदि ले ली और उन्हें खुद अपनी पीठ पर लादकर बेचने चला।

दूकानदार ने कहा--यह क्या करते हो बाबूजी, एक मजूर ले लो। लोग क्या कहेंगे? भद्दा लगता है।

अमर के अन्तःकरण में क्रान्ति का तूफान उठ रहा था। उसका बस चलता, तो आज धनवानों का अन्त कर देता, जो संसार को नरक बनाये हुए हैं। वह बोझ उठाकर दिखाना चाहता था, मैं मजूरी करके निबाह करना इससे कहीं अच्छा समझता हूँ कि हराम की कमाई खाऊँ। तुम सब मोटी

कर्मभूमि
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