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बैठे, और दूसरा आदमी दोपहर की धूप में तपे, यह न न्याय है, न धर्म--यह धाँधली है।'

'छोटे-बड़े तो भाई साहब, हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे। सबको आप बराबर नहीं कर सकते।'

'दुनिया का ठेका नहीं लेता। अगर न्याय अच्छी चीज है तो वह इसलिये खराब नहीं हो सकती कि लोग उसका व्यवहार नहीं करते।'

'इसका आशय यह है कि आप व्यक्तिवाद को नहीं मानते, समष्टिवाद के क़ायल हैं !

'मैं किसी वाद का कायल नहीं। केवल न्यायवाद का पुजारी हूँ।'

'तो अपने पिताजी से बिलकुल अलग हो गये?'

'पिताजी ने मेरी जिन्दगी भर का ठेका नहीं लिया।'

'अच्छा, लाइये देखें आपके पास क्या-क्या चीजें हैं ?'

अमरकान्त ने इन महाशय के हाथ दस रुपये के कपड़े बेचे।

अमर आज-कल बड़ा क्रोधी, बड़ा कटुभाषी, बड़ा उद्दण्ड हो गया है। हरदम उसकी तलवार म्यान के बाहर रहती है। बात-बात पर उलझता है। फिर भी उसकी बिक्री अच्छी होती है। रुपया-सवा रुपया रोज मिल जाता है।

त्यागी दो प्रकार के होते हैं। एक वह जो त्याग में आनन्द मानते हैं, जिनकी आत्मा को त्याग में सन्तोष और पूर्णता का अनुभव होता है, जिनके त्याग में उदारता और सौजन्य है। दूसरे वह, जो दिलजले त्यागी होते हैं, जिनका त्याग अपनी परिस्थितियों से विद्रोह-मात्र है, जो अपने न्यायपथ पर चलने का तावान संसार से लेते हैं, जो खुद जलते हैं इसलिए दूसरों को भी जलाते हैं। अमर इसी तरह का त्यागी था।

स्वस्थ आदमी अगर नीम की पत्ती चबाता है, तो अपने स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए। वह शौक से पीसता और शौक से पीता है; पर रोगी वही पत्तियाँ पीता है, तो नाक सिकोड़कर, मुँह बनाकर, झुंझलाकर और अपनी तक़दीर को रोकर।

सुखदा जज साहब की पत्नी की सिफ़ारिश से बालिका-विद्यालय में ५०) पर नीकर हो गयी है। अमर दिल खोलकर तो कुछ कह नहीं सकता; पर मन में जलता रहता है। घर का सारा काम, बच्चे को सँभालना, रसोई

कर्मभूमि
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