पकाना, जरूरी चीज बाजार से मँगाना--वह सब उसके मत्थे है। सूखदा घर के कामों के नगीच नहीं जाती। अमर आम कहता है, तो सुखदा इमली कहती है। दोनों में हमेशा खट-पट होती रहती है। सुखदा इस दरिद्रावस्था में भी उस पर शासन कर रही है। अमर कहता है, आधा सेर दूध काफ़ी है, सुखदा कहती है, सेर भर आयेगा, और सेर भर ही मँगाती है । वह खुद दूध नहीं पीता इस पर भी रोज़ लड़ाई होती है। वह कहता है, हम गरीब हैं, मजूर हैं, हमें मजदूरों की तरह रहना चाहिए। वह कहती है, हम मजूर नहीं हैं न मजूरों की तरह रहेंगे। अमर उसको अपने आत्मविकास में बाधक समझता है और उस बाधा को हटा न सकने के कारण भीतर-ही-भीतर कुढ़ता है।
एक दिन बच्चे को खाँसी आने लगी। अमर बच्चे को लेकर एक होमियोपंथ के पास जाने को तैयार हुआ। सुखदा ने कहा--बच्चे को मत ले जाओ, हवा लगेगी। डाक्टर को बुला लाओ। फ़ीस ही तो लेगा !
अमर को मजबूर होकर डाक्टर बुलाना पड़ा। तीसरे दिन बच्चा अच्छा हो गया।
एक दिन खबर मिली, लाला समरकान्त को ज्वर आ गया है। अमरकान्त इस महीने भर में एक बार भी घर न गया था। यह खबर सुनकर भी न गया। वह मरें या जियें, उसे क्या करना है। उन्हें अपना धन प्यारा है, उसे छाती से लगाये रखें। और उन्हें किसी की जरूरत ही क्या।
पर सुखदा से न रहा गया । वह उसी वक्त नैना को साथ लेकर चल दी।
अमर मन में जल-भुनकर रह गया।
समरकान्त घरवालों के सिवा और किसी के हाथ का भोजन न ग्रहण करते थे। कई दिन तो उन्होंने केवल दूध पर काटे, फिर कई दिन फल खाकर रहे। लेकिन रोटी-दाल के लिए जी तरसता रहा था । नाना पदार्थ बाजार में भरे थे, पर रोटियाँ कहाँ ? एक दिन उनसे न रहा गया। रोटियाँ पकाई, और हविस में आकर कुछ ज्यादा खा गये। अजीर्ण हो गया। एक दिन दस्त आये। दूसरे दिन ज्वर हो आया। फलाहार से कुछ तो पहले गल चुके थे, दो दिन की बीमारी ने लस्त कर दिया।
सुखदा को देखकर बोले--अभी क्या आने को जल्दी थी बहू, दो-चार