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दिन और देख लेतीं। तब तक यह धन का साँप उड़ गया होता। वह लौंडा समझता है मुझे अपने बाल बच्चों से धन प्यारा है ! किसके लिए उसका संचय किया था? अपने लिए? तो बाल बच्चों को क्यों जन्म दिया? उसी लौंडे को जो आज मेरा शत्रु बना हुआ है, छाती से लगाये क्यों ओझे-स्यानों, वैदों-हकीमों के पास दौड़ा फिरा? खुद कभी अच्छा नहीं खाया अच्छा नहीं पहना, किसके लिए? कृपण बना, वेईमानी की, दूसरों की खुशामद की, अपनी आत्मा की हत्या की, किसके लिए? जिसके लिए चोरी की, वही आज मुझे चोर कहता है ?

सुखदा सिर झुकाये खड़ी रोती रही।

लालाजी ने फिर कहा--मैं जानता हूँ, जिसे ईश्वर ने हाथ दिये हैं, वह दूसरों का मुहताज नहीं रह सकता। इतना मूर्ख नहीं हूँ; लेकिन माँ-बाप की कामना तो यही होती है, कि उनकी सन्तान को कोई कष्ट न हो। जिस तरह उन्हें मरना पड़ा उसी तरह उनकी सन्तान को मरना न पड़े। जिस तरह तुम्हें धक्के खाने पड़े, कर्म-अकर्म सब करने पड़े, वे कठिनाइयाँ उनकी सन्तान को न झेलनी पड़ें। दुनियां उन्हें लोभी, स्वार्थी कहती है, उनको परवाह नहीं होती; लेकिन जब अपनी ही सन्तान अपना अनादर करे, तब सोचो, अभागे बाप के दिल पर क्या बीतती है ! उसे मालूम होता है, सारा जीवन निष्फल हो गया। जो विशाल भवन एक-एक ईंट जोड़कर खड़ा किया था, जिसके लिए क्वार की धूप, और माघ की वर्षा सब झेली, वह ढह गया, और उसके ईंट-पत्थर सामने बिखरे पड़े हैं। वह घर नहीं ढह गया, वह जीवन ढह गया। सम्पूर्ण जीवन की कामना ढह गयी।

सुखदा ने बालक को नैना की गोद से लेकर ससुर की चारपाई पर सुला दिया और पङ्खा झलने लगी। बालक ने बड़ी-बड़ी सजग आँखों से बूढ़े दादा की मूँछें देखीं, और उनके वहाँ रहने का कोई विशेष प्रयोजन न देखकर उन्हें उखाड़कर फेंक देने के लिए उद्यत हो गया। दोनों हाथों से मूछें पकड़कर खींची। लालाजी ने 'सी-सी' तो की; पर बालक के हाथों को हटाया नहीं। हनुमान ने भी इतनी निर्दयता से लंका के उद्यानों का विध्वंस न किया होगा। फिर भी लालाजी ने बालक के हाथों से मूंछे नहीं छुड़ाईं। उनकी कामनाएँ जो पड़ी एड़ियाँ रगड़ रही थीं, इस स्पर्श से जैसे संजीवनी

कर्मभूमि
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