पा गई। उस स्पर्श में कोई ऐसा प्रसाद, कोई ऐसी विभूति थी। उनके रोम-रोम में समाया हुआ बालक जैसे मथित होकर नवनीत की भाँति प्रत्यक्ष हो गया हो।
दो दिन सूखदा अपने नये घर न गयी; पर अमरकान्त पिता को देखने एक बार भी न आया। सिल्लो भी सुखदा के साथ चली गयी थी। शाम को आता, रोटियाँ पकाता, खाता और काँग्रेस दफ्तर या नौजवान-सभा के कार्यालय में चला जाता। कभी किसी आम जलसे में बोलता, कभी चन्दा उगाहता।
तीसरे दिन लालाजी उठ बैठे। सूखदा दिन भर तो उनके पास रही। सन्ध्या समय उनसे विदा माँगी। लालाजी स्नेह-भरी आँखों से देखकर बोले--मैं जानता कि तुम मेरी तीमारदारी ही के लिए आई हो, तो दस-पाँच दिन पड़ा रहता बहू। मैंने तो जान-बूझकर कोई अपराध नहीं किया; लेकिन कुछ अनुचित हुआ हो, तो उसे क्षमा करो।
सुखदा का जी हुआ मान त्याग दे; पर इतना कष्ट उठाने के बाद जब अपनी गृहस्थी कुछ-कुछ जम चली थी, यहाँ आना कुछ अच्छा न लगता था। फिर, वहाँ वह स्वामिनी थी। घर का संचालन उसके अधीन था । वहाँ की एक-एक वस्तु में अपनापन भरा हुआ था। एक-एक तृण में उसका स्वाभिमान झलक रहा था। एक-एक वस्तु में उसका अनुराग अंकित था। एक-एक वस्तु पर उसकी आत्मा की छाप थी, मानो उसकी आत्मा ही प्रत्यक्ष हो गयी हो। यहाँ की कोई वस्तु उसके अभिमान की वस्तु न थी; उसकी स्वामिनी कल्पना सब कुछ होने पर भी तुष्टि का आनन्द न पाती थी। पर लालाजी को समझाने के लिए किसी युक्ति की जरूरत थी। बोली--यह आप क्या कहते हैं दादा, हम लोग आपके बालक हैं। आप जो कुछ उपदेश या ताड़ना देंगे, वह हमारे ही भले के लिए देंगे। मेरा जी तो जाने को नहीं चाहता; लेकिन अकेले मेरे चले आने से क्या होगा। मुझे खुद शर्म आती है कि दुनिया क्या कह रही होगी। में जितनी जल्द हो सकेगा, सबको घसीट लाऊँगी। जब तक आदमी कुछ ठोकरें नहीं खा लेता, उसकी आँखें नहीं खुलती। मैं एक बार रोज आकर आपका भोजन बना जाया करूँगी। कभी बीबी चली आयँगी, कभी मैं चली आऊँगी।