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उस दिन से सुखदा का यही नियम हो गया। वह सबेरे यहाँ चली आती और लालाजी को भोजन कराके लौट जाती। फिर खुद भोजन कर के बालिका विद्यालय चली जाती। तीसरे पहर जब अमरकान्त खादी बेचने चला जाता, तो वह नैना को लेकर फिर आ जाती, और दो-तीन घन्टे रहकर चली जाती। कभी-कभी खुद रेणुका के पास जाती, तो नैना को यहाँ भेज देती। उसके स्वाभिमान में कोमलता थी, अगर कुछ जलन थी, तो वह कब की शीतल हो चुकी थी। वृद्ध पिता को कोई कष्ट हो, यह उससे न देखा जाता था।

इन दिनों उसे जो बात सबसे ज्यादा खटकती थी, वह अमरकान्त का सिर पर खादी लाद कर चलना था। वह कई बार इस विषय पर उनसे झगड़ा कर चुकी थी; पर उसके कहने से वह और जिद पकड़ लेते थे। इसलिए उसने कहना-सुनना छोड़ दिया था; पर एक दिन घर जाते समय उसने अमरकान्त को खादी का गट्ठर लिये देख लिया। उस समय महल्ले की एक महिला भी उसके साथ थी। सूखदा मानों धरती में गड़ गयी।

अमर ज्यों ही घर आया, उसने यही विषय छेड़ दिया--मालूम तो हो गया, कि तुम बड़े सत्यवादी हो। दूसरों के लिए भी कुछ रहने दोगे, या सब तुम्हीं ले लोगे। अब तो संसार में परिश्रम का महत्त्व सिद्ध हो गया। अब तो बकचा लादना छोड़ो। तुम्हें शर्म न आती हो; लेकिन तुम्हारी इज्जत के साथ मेरी इज्जत भी तो बँधी हुई है। तुम्हें कोई अधिकार नहीं है, कि तुम यो मुझे अपमानित करते फिरो।

अमर तो कमर कसे तैयार था ही। बोला--यह तो मैं जानता हूँ कि मेरा अधिकार कहीं कुछ नहीं है; लेकिन क्या यह पूछ सकता हूँ कि तुम्हारे अधिकारों की भी सीमा कहाँ है, या वह असीम है ?

'मैं ऐसा कोई काम नहीं करती, जिसमें तुम्हारा अपमान हो!'

'अगर मैं कहूँ कि जिस तरह मेरे मजदूरी करने से तुम्हारा अपमान होता है, उसी तरह तुम्हारे नौकरी करने से मेरा अपमान होता है, तो शायद तुम्हें विश्वास न आयेगा।'

'तुम्हारे मान-अपमान का काँटा संसार-भर से निराला हो, तो मैं लाचार हूँ।'

कर्मभूमि
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