अमरकान्त सूत कातने में मग्न था, कि उसकी छोटी बहन नैना आकर बोली--क्या हुआ भैया, फीस जमा हुई या नहीं ? मेरे पास २०) हैं, यह ले लो। मैं कल और किसी से मांग लाऊँगी।
अमर ने चरखा चलाते हए कहा--आज ही तो फीस जमा करने की तारीख थी। नाम कट गया। अब रूपये लेकर क्या करूँगा।
नैना रूप-रंग में अपने भाई से इतनी मिलती थी, कि अमरकान्त उसकी साड़ी पहन लेता, तो यह बतलाना मुश्किल हो जाता, कि कौन यह है, कौन वह। हाँ, इतना अन्तर अवश्य था, कि भाई की दुर्बलता यहाँ सुकुमारता बनकर आकर्षक हो गयी थी।
अमर ने तो दिल्लगी की थी ; पर नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। बोली--तुमने कहा नहीं, नाम न काटो, मैं दो-एक दिन में दे दूँगा ?
अमर ने उसकी घबराहट का आनन्द उठाते हुए कहा--कहने को तो मैंने सब कुछ कहा; लेकिन सुनता कौन था।
नैना ने रोष के भाव से कहा--मैं तो तुम्हें अपने कड़े दे रही थी, क्यों नहीं लिये ?
अमर ने हँसकर पूछा--और जो दादा पूछते तो क्या होता?
'दादा से मैं बतलाती ही क्यों।'
अमर ने मुँह लम्बा करके कहा--चोरी से कोई काम नहीं करना चाहता नैना ! अब खुश हो जाओ, मैंने फीस जमा कर दी।
नैना को विश्वास न आया, बोली--फीस नहीं, वह जमा कर दी। तुम्हारे पास रुपये कहाँ थे ?
'नहीं नैना, सच कहता हूँ, जमा कर दी।'
'रुपये कहाँ थे ?'
'एक दोस्त से ले लिये।'
'तुमने माँगे कैसे ?'
'उसने आप-ही-आप दे दिये, मुझे मांगने न पड़े।'
'कोई बड़ा सज्जन आदमी होगा।'
'हाँ, है तो सज्जन नैना। जब फीस जमा होने लगी, तो मैं मारे शर्म के बाहर चला गया। न-जाने क्यों मुझे उस वक्त रोना आ गया। सोचता