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उसने खद्दर की दो साड़ियाँ उसे भेंट देने के लिए ले लीं और लपका हुआ जा पहुँचा।

सकीना उसकी राह देख रही थी। कुण्डी खटकते ही द्वार खोल दिया और हाथ पकड़कर बोली--तुम तो मुझे भूल ही गये। इसी का नाम मुहब्बत है?

अमर ने लज्जित होकर कहा--यह बात नहीं है सकीना। एक लमहे के लिए भी तुम्हारी याद दिल से नहीं उतरती; पर इधर बड़ी परेशानियों में फँसा रहा।

'मैने सुना था। अम्मा कहती थीं। मुझे यक़ीन न आता था, कि तुम अपने अब्बाजान से अलग हो गये। फिर यह भी सुना, कि तुम सिर पर खद्दर लादकर बेचते हो। मैं तो तुम्हें कभी सिर पर बोझ न लादने देती। मैं गठरी अपने सिर पर रखती और तुम्हारे पीछे-पीछे चलती। मैं यहाँ आराम से पड़ी थी और तुम इस धूप में कपड़े लादे फिरते थे। मेरा दिल तड़प तड़पकर रह जाता था।'

कितने प्यारे मीठे शब्द थे ! कितने कोमल, स्नेह से डूबे हुए ! सुखदा के मुख से भी कभी यह शब्द निकले? वह तो केवल शासन करना जानती है ! उसको अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ, कि वह उसका चौगुना बोझ लेकर चल सकता है, लेकिन वह सकीना के कोमल हृदय को आघात नहीं पहुँचायेगा। आज से वह गट्ठर लादकर नहीं चलेगा। बोला--दादा की खुदग़रज़ी पर दिल जल रहा था सकीना ! वह समझते होंगे, मैं उनकी दौलत का भूखा हूँ। मैं उन्हें और उनके दूसरे भाइयों को दिखा देना चाहता था, कि मैं कड़ी-से-कड़ी मेहनत कर सकता हूँ। दौलत की मुझे परवाह नहीं है। सुखदा उस दिन मेरे साथ आयी थी; लेकिन एक दिन दादा ने झूठ-मूठ कहला दिया, मुझे बुखार हो गया है। बस वहाँ पहुँच गई। तब से दोनों वक्त उनका खाना पकाने जाती है।

सकीना ने सरलता से पूछा--तो क्या यह भी तुम्हें बुरा लगता है ? बूढ़े आदमी अकेले घर में पड़े रहते हैं। अगर वह चली जाती है, तो क्या बुराई करती है। उनकी बात से तो मेरे दिल में उनकी इज्जत हो गई।

अमर ने खिसियाकर कहा--यह शराफ़त नहीं है सकीना, उनकी दौलत

कर्मभूमि
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