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कि हमें आबरू प्यारी है। खबरदार जो इधर का रुख किया। मुँह में कालिख लगाकर चला जा !

अमर पर फ़ालिज गिर गया, पहाड़ टूट पड़ा, वज्रपात हो गया। इन वाक्यों से उसके मनोभावों का अनुमान हम नहीं कर सकते। जिनके पास कल्पना है, वही कुछ अनुमान कर सकते हैं। वह जैसे संज्ञा-शून्य हो गया, मानो पाषण-प्रतिमा हो। एक मिनट तक वह इसी दशा में खड़ा रहा। फिर दोनों साड़ियाँ उठा ली और गोली खाये जानबर की भाँति सिर लटकाये, लड़खड़ाता हुआ द्वार की ओर चला।

सहसा सकीना ने उसका हाथ पकड़कर रोते हुए कहा--बाबूजी, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ। जिन्हें अपनी आबरू प्यारी है, वह अपनी आबरू लेकर चाटें। मैं बे-आबरू ही रहूँगी।

अमरकान्त ने हाथ छुड़ा लिया और आहिस्ता से बोला--जिन्दा रहेंगे, तो फिर मिलेंगे सकीना! इस वक्त जाने दो। मैं अपने होश में नहीं हूँ।

यह कहते उसने कुछ समझकर दोनों साड़ियाँ सकीना के हाथ में रख दी और बाहर चला गया।

सकीना ने सिसकियाँ लेते हुए पूछा--तो आओगे कब?

अमर ने पीछे फिरकर कहा--जब यहाँ मुझे लोग शोहदा और कमीना न समझेंगे।

अमर चला गया और सकीना हाथों में साड़ियाँ लिये द्वार पर खड़ी अन्धकार में ताकती रही।

सहसा बुढ़िया ने पुकारा--अब आकर बैठेगी कि वहीं दरवाजे पर खड़ी रहेगी? मुँह में कालिख तो लगा दी। अब और क्या करने पर लगी हुई है?

सकीना ने क्रोध-भरी आँखों से देखकर कहा--अम्मा, आक़बत से डरो, क्यों किसी भले आदमी पर तोहमत लगाती हो। तुम्हें ऐसी बात मुँह से निकालते शर्म भी नहीं आयी! उनकी नेकियों का यह बदला दिया है तुमने ? तुम दुनिया में चिराग़ लेकर जाओ, ऐसा शरीफ़ आदमी तुम्हें न मिलेगा।

पठानिन ने डाँट बताई--चुप रह बेहया कहीं की! शर्माती नहीं, ऊपर से ज़बान चलाती है। आज घर में कोई मर्द होता, तो सिर काट लेता।

कर्मभूमि
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