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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१३६

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'फ़जूल है। शायद मेरी तकदीर में यही लिखा था। कभी खुशी न नसीब हुई और न शायद नसीब होगी। जब रो रोकर ही मरना है, तो कहीं भी रो सकता हूँ।'

'चलो मेरे घर, वहाँ डाक्टर साहब को भी बुला लें, फिर सलाह करें। वह क्या कि एक बुढ़िया ने फटकार बताई और आप घर से भाग खड़े हए। यहाँ तो ऐसी कितनी ही फटकारें सुन चुका, पर कभी परवाह नहीं की।'

'मुझे तो सकीना का खयाल आता है कि बुढ़िया उसे कोस-कोसकर मार डालेगी।'

'आखिर तुमने उसमें ऐसी क्या बात देखी, जो लट्टू हो गये ?'

अमर ने छाती पर हाथ रखकर कहा--तुम्हें क्या बताऊँ भाई-जान। सकीना असमत और बफ़ा की देवी है। गूदड़ में यह रत्न कहाँ से आ गया, यह तो खुदा ही जाने पर मेरी गमनसीव ज़िन्दगी में वही चन्द लमहे यादगार हैं, जो उसके साथ गुज़रे। तुमसे इतनी ही अर्ज़ है कि ज़रा उसकी खबर लेते रहना। इस वक्त दिल की जो कैफ़ियत है, वह बयान नहीं कर सकता। नहीं जानता जिन्दा रहूँगा, या मरूँगा। नाव पर बैठा हूँ। कहाँ जा रहा हूँ, खबर नहीं; कब, कहाँ, नाव किनारे लगेगी, मुझे कुछ खबर नहीं। बहुन मुमकिन है मँझधार में डूब जाय। अगर जिन्दगी के तजरबे से कोई बात समझ में आई, तो यह कि संसार में किसी न्यायी ईश्वर का राज्य नहीं है। जो चीज़ जिसे मिलनी चाहिए, उसे नहीं मिलती। इसका उलटा ही होता है। हम जंजीरों में जकड़े हुए हैं। खुद हाथ-पाँव नहीं हिला सकते। हमें एक चीज़ दे दी जाती है और कहा जाता है, इसके साथ तुम्हें जिन्दगी भर निवाह करना होगा। हमारा धरम है कि उस चीज पर कनायत करें। चाहे हमें उससे नफ़रत ही क्यों न हो। अगर हम अपनी जिन्दगी के लिए कोई दूसरी राह निकालते हैं, तो हमारी गरदन पकड़ ली जाती है, हमें कुचल दिया जाता है। इसी को दुनिया इन्साफ़ कहती है। कम-मे-कम मैं इस दुनिया में रहने के काबिल नहीं हूँ।

सलीम बोला--तुम लोग बैठे-बैठाये अपनी जान जहमत में डालने की फ़िक्र किया करते हो, गोया जिन्दगी हजार-दो-हजार साल की है। घर में रुपये भरे हुए हैं, बाप तुम्हारे ऊपर जान देता है, बीबी परी जैसी बैठी हुई

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कर्मभूमि