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हैं, और आप एक जुलाहे की लड़की के पीछे घर-बार छोड़े भागे जा रहे हैं। मैं तो इसे पागलपन कहता हूँ। दा से ज्यादा यही तो होगा, कि तुम कुछ कर जाओगे, यहाँ पड़े सोते रहेंगे। पर अंजाम दोनों का एक है। तुम रामनाम सत्त हो जाओगे, मैं इन्नल्लाह राजेऊन !

अमर ने विषाद-भरे स्वर में कहा--जिस तरह तुम्हारी जिन्दगी गुजरी उस तरह मेरी जिन्दगी भी गुजरती, तो शायद मेरे भी यही खयाल होते। मैं वह दरख्त हूँ, जिसे कभी पानी नहीं मिला। जिन्दगी की वह उम्र जब इन्सान को मुहब्बत की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, बचपन है। उस वक्त पौधे को तरी मिल जाय, जिन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मज़बूत हो जाती है। उस वक्त खुराक न पाकर, उसकी जिन्दगी खुश्क हो जाती है। मेरी माता का उसी जमाने में देहान्त हुआ और तबसे मेरी रूह को खूराक नहीं मिली। वही भूख मेरी ज़िन्दगी है। मुझे जहाँ मुहब्बत का एक रेजा भी मिलेगा, मैं बेअख्तियार उसी तरफ जाऊँगा। कुदरत का अटल कानून मुझे उस तरफ ले जाता है। इसके लिए अगर मुझे कोई खतावार कहे, तो कहे। मैं तो खुदा ही को जिम्मेदार कहूँगा।

सलीम ने कहा--आओ, खाना तो खा लो। आखिर कितने दिनों तक जला-वतन रहने का इरादा है ?

दोनों आकर कमरे में बैठे। अमर ने जवाब दिया--यहाँ अपना कौन बैठा हुआ है, जिसे मेरा दर्द हो। बाप को मेरी परवाह नहीं, शायद और खुश हों कि अच्छा हुआ बला टली। सुखदा मेरी सूरत से बेज़ार है ! दोस्तों में ले-दे के एक तुम हो। तुमसे कभी-कभी मुलाकात होती रहेगी। माँ होती तो शायद उसकी मुहब्बत खींच लाती। तब जिन्दगी की यह रफ्तार ही क्यों होती! दुनिया में सबसे बदनसीब वह है, जिसकी माँ मर गयी हो।

अमरकान्त माँ को याद करके रो पड़ा। माँ का वह स्मृति चित्र उसके सामने आया, जब वह उसे रोते देखकर गोद में उठा लेती थी, और माता के अंचल में सिर रखते ही वह निहाल हो जाता था।

सलीम ने अन्दर जाकर चुपके से अपने नौकर को लाला समरकान्त के पास भेजा कि जाकर कहना, अमरकान्त भागे जा रहे हैं। जल्दी चलिए। साथ लेकर फ़ौरन आना। एक मिनट की भी देर हुई, तो गोली मार दूँगा।

कर्मभूमि
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