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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/१३८

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फिर बाहर आकर उसने अमरकान्त को बातों में लगाया--लेकिन तुमने यह भी सोचा है, सुखदा देवी का क्या हाल होगा? मान लो, वह भी अपनी दिलबस्तगी का कोई इन्तजाम कर लें? बुरा न मानना।

अमर ने इसे अनहोनी बात समझते हुए कहा--हिन्दू औरत इतनी बेहया नहीं होती।

सलीम ने हँसकर कहा--बस, आ गया हिन्दूपन। अरे भाई जान इस मुआमले में हिन्दू और मुसलमान की कैद नहीं। अपनी-अपनी तबियत है। हिन्दओं में भी देवियाँ हैं, मुसलमानों में भी देवियाँ हैं। हरजाइयाँ भी दोनों ही में हैं। फिर तुम्हारी बीबी तो नई औरत है, पढ़ी-लिखी, आजाद ख्याल, सैर-सपाटे करनेवाली, सिनेमा देखनेवाली, अखबार और नावेल पढ़नेवाली! ऐसी औरतों से खुदा की पनाह। यह यूरप की बरकत है। आजकल की देवियाँ जो कुछ न कर गुजरें वह थोड़ा है। पहले लौंडे पेशकदमी किया करते थे। मरदों की तरफ से छेड़-छाड़ होती थी। अब जमाना पलट गया है। अब स्त्रियों की तरफ से छेड़-छाड़ शुरू होती है।

अमरकान्त बेशर्मी से बोला--इसकी चिन्ता उसे हो, जिसे जीवन में कुछ सुख हो। जो ज़िन्दगी से बेजार है, उसके लिए क्या। जिसकी खुशी हो रहे जिसकी खुशी हो जाय। मैं न किसी का गुलाम हूँ, न किसी को अपना गुलाम बनाना चाहता हूँ।

सलीम ने परास्त होकर कहा--तो फिर हद हो गयी। फिर क्यों न औरतों का मिजाज आसमान पर चढ़ जाय। मेरा खून तो इस ख्याल ही से उबल आता है।

'औरतों को भी तो बेवफ़ा मरदों पर इतना ही क्रोध आता है !'

'औरतों और मरदों के मिजाज में, जिस्म की बनावट में, दिल के जज़बात में फर्क है। औरत एक की होकर रहने के लिए बनाई गयी है। मर्द आजाद रहने के लिए बनाया गया है।'

'यह मर्दो की खुदगरजी है।'

'जी नहीं, यह हैवानी जिन्दगी का उसूल है।'

बहस में शाखें निकलती गयीं। विवाह का प्रश्न आया, फिर बेकारों की समस्या पर विचार होने लगा। फिर भोजन आ गया। दोनों खाने लगे।

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कर्मभूमि