अभी दो-चार कौर ही खाये होंगे, कि दरबान ने लाला समरकान्त के आने की खबर दी। अमरकान्त झट मेज पर से उठ खड़ा हआ, कुल्ला किया, प्लेट मेज़ के नीचे छिपाकर रख दिये और बोला--इन्हें कैसे मेरी खबर मिल गई ? अभी तो इतनी देर भी नहीं हुई। जरूर बुढ़िया ने आग लगा दी।
सलीम मुसकरा रहा था।
अमर ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा--यह तुम्हारी शरारत मालूम होती है ! इसलिये तुम मुझे यहाँ लाये थे ? आखिर क्या नतीजा होगा। मुफ्त की ज़िल्लत होगी मेरी। मुझे ज़लील कराने से तुम्हें कुछ मिल जायगा ? मैं इसे दोस्ती नहीं, दुश्मनी कहता हूँ।
ताँगा द्वार पर रुका और लाला समरकान्त ने कमरे में कदम रखा।
सलीम इस तरह लालाजी की ओर देख रहा था, जैसे पूछ रहा हो, मैं यहाँ रहूँ या जाऊँ। लालाजी ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा--तुम क्यों खड़े हो बेटा, बैठ जाओ। हमारी और हाफ़िजजी की पुरानी दोस्ती है। इसी तरह तुम और अमर भाई-भाई हो। तुमसे क्या पर्दा है ? मैं सब सुन चुका हूँ लल्लू। बुढ़िया रोती हुई आई थी। मैंने बुरी तरह फटकारा ! मैंने कह दिया, मुझे तेरी बात का विश्वास नहीं है। जिसकी स्त्री लक्ष्मी का रूप हो, वह क्यों चुड़ैलों के पीछे प्राण देता फिरेगा; लेकिन अगर कोई बात ही है, तो उसमें घबड़ाने की कोई बात नहीं है बेटा ! भूल-चूक सभी से होती है। बुढ़िया को दो-चार सौ रुपये दे दिये जायेंगे। लड़की की किसी भले घर में शादी हो जायगी। चलो झगड़ा पाक हुआ। तुम्हें घर से भागने और शहर भर में ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रूरत है। मेरी परवाह मत करो; लेकिन तुम्हें ईश्वर ने बाल-बच्चे दिये हैं। सोचो, तुम्हारे चले जाने से कितने प्राणी अनाथ हो जायेंगे। स्त्री तो स्त्री ही है, बहन है, वह रो-रोकर मर जायगी। रेणुका देवी हैं, वह भी तुम्हीं लोगों के प्रेम से यहाँ पड़ी हुई हैं। जब तुम्हीं न होगे, तो वह सुखदा को लेकर चली जायेंगी, मेरा घर चौपट हो जायगा। मैं घर में अकेला भूत की तरह पड़ा रहूँगा। बेटा सलीम, मैं कुछ बेजा तो नहीं कह रहा हूँ ? जो कुछ हो गया सो हो गया। आगे के लिए एहतियात रखो। तुम खुद समझदार हो, मैं तुम्हें क्या समझाऊँ। मन को कर्तव्य की डोरी से बाँधना पड़ता है; नहीं तो उसकी चंचलता आदमी को न जाने कहाँ लिये-
कर्मभूमि | १३५ |